राज-परिवारों का युग 1947 के साथ समाप्त हो गया लेकिन ‘परिवार-राज’ के बिना देश-प्रदेश की जनता का पूरा समर्थन नहीं मिलता और न ही सत्ता का सिंहासन पांच वर्ष स्थायी रह पाता है। ताजा प्रमाण उत्तर प्रदेश का है। लगभग तीन दशकों से मुलायम सिह यादव परिवार का वर्चस्व उ.प्र. की सत्ता राजनीति पर है। मुलायम सिंह परायों को ही नहीं अपनों को भी चेतावनी दे देते हैं कि यदि पारिवारिक समझौता नहीं किया गया तो पार्टी और सिंहासन के पाये भी टूट जाएंगे। उनके विकल्प में सुश्री मायावती के नेतृत्व वाली पार्टी है। इसे कांशीराम जी ने स्थापित किया। पंजाब से उ.प्र. तक पहले साइिकल, फिर जीप-कार से प्रभाव बनाया और ‘बहन’ मायावती जी को मुख्यमंत्री बनवा दिया। दोनों के नजदीकी सहयोगी उन्हें परिवार के मुखिया मानकर सत्ता के अंदर और बाहर रहकर राजनीतिक लाभ पाते रहे हैं। तीन दशकों के दौरान बहुजन समाज पार्टी में सुश्री मायावती का क्या कोई विकल्प बन सका? पूर्व या आगामी चुनाव कांशीराम-मायावती के नाम के बिना उनका कोई नेता विजयी हो सकता है? सत्ता की राजनीति में लगभग विफल दिख रहे चौधरी अजीत सिंह परिवार और उनकी पार्टी पांच दशकों से उ.प्र. में सत्ता के दाव-पेंच, सुख-दु:ख की दास्तान कहती है। आखिरकार, अजीत सिंह के पिता चौधरी चरण सिंह 1970 से पहले कांगे्रस से विद्रोह कर उ.प्र. की पहली संविद सरकार के सेनापति बने थे। चौधरी साहब ने अपनी पार्टियों के नाम कई बार बदले। अलग-अलग पार्टियों से रिश्ते जोड़े और तोड़े। प्रधानमंत्री तक बन गए। हटने के बाद भी उनके परिवार का वर्चस्व पश्चिमी उत्तर प्रदेश पर बना रहा। चरण सिंह सही मायने में किसानों के नेता माने जाते थे, इसलिए उ.प्र. के साथ बिहार तथा आस-पास के क्षेत्रों में भी उनके नाम का सिक्का चलता रहा। उनके बेटे अजीत सिंह उसी राजनीतिक पूंजी का लाभ आज तक उठा रहे हैं। कांगे्रस, भाजपा, समाजवादी, बसपा, जनता दल (यू) इत्यादि से समझौते और विरोध के बल पर वह राष्ट्रीय स्तर पर मंत्री रहते हुए उ.प्र. की राजनीति को प्रभावित करते रहे और एक दशक से अपने उत्तराधिकारी पुत्र को सत्ता के खेल में आगे बढ़ा रहे हैं। आगामी चुनाव के लिए सबसे सौदेबाजी के साथ जद (यू) से समझौते की तैयारी है। दिलचस्प बात यह है कि पिछले पांच दशकों में कांगे्रस भी दीक्षित, बहुगुणा, त्रिपाठी परिवारों के बल पर ही कांगे्रस की राजनीति का महत्व बनाती रही। इस बार कांग्रेस में इंदिरा युग के दिग्गज नेता, कोषाध्यक्ष रहे उमाशंकर दीक्षित की बहूरानी 76 वर्षीय श्रीमती शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के रूप में सामने लाया गया है। हेमवतीनंदन बहुगुणा परिवार की बेटी रीता बहुगुणा भी लगातार उ.प्र. की राजनीति में सक्रिय हैं। कमलापति त्रिपाठी का परिवार पूर्वांचल में निरंतर सक्रिय है। तीन दशकों तक चंद्रभान गुप्त परिवार का भी क्षेत्रीय राजनीति पर प्रभाव रहा।
नरसिंह राव और मनमोहन सिंह के भक्त, समर्थक, मीडिया सलाहकार संजय बारू ने हाल में दावा (भविष्यवाणी की तरह) किया है कि ‘भारत में ‘नेहरू-गांधी’ परिवार का युग 1991 से खत्म हो गया और इस परिवार का सदस्य अब कभी सत्ता में नहीं आ सकेगा।’ यूं नरसिंह राव के गुरु चंद्रास्वामी 1980 से तंत्र-मंत्र और षड्यंत्रों से इंदिरा गांधी-राजीव गांधी परिवार को हटाने में लगे हुए थे। राव के सत्ता में आने के बाद तो वह ‘राज-गुरु’ की तरह सत्ता की राजनीति में चमत्कार दिखाते रहे। बहरहाल, कांगे्रस में दिग्गज नेताओं के रहते हुए और कुछ विभाजनों के बाद भी 2004 में क्या नेहरू-गांधी परिवार के बिना कांगे्रसी सत्ता में आ सकते थे? संजय बारू ही नहीं कुछ अन्य लोग भी 2009 की चुनावी जीत का श्रेय मनमोहन सिंह को देते रहे हैं, लेकिन उनके पास इस बात का उत्तर नहीं हो सकता कि भलेमानुस मनमोहन सिंह अपने जीवन और सत्ताकाल में लोकसभा, विधानसभा, नगरपालिका या पंचायत तक का एक चुनाव नहीं जीत सके। 2009 और 2014 में तो पार्टी की ओर से कहीं किसी सभा के लिए उनका नाम भेजा जाता था, तो प्रत्याशी किसी अन्य प्रभावशाली, जनता को प्रभावित करने वाले नेता को भिजवाने की अपील करता रहता था। लोकतंत्र में परिवारवाद निश्चित रूप से सिद्धांतत: अनुचित नहीं हो सकता है। आज भी राहुल गांधी ‘रोड शो’, रैलियों, अभियानों, भाषणों से जनता को प्रभावित करने की कोशिश में लगे हैं। लेकिन जनता ही नहीं कांगे्रसी स्वयं उनसे उत्साहित नहीं हो रहे। फिर राव-मनमोहन की शिष्य मंडली क्या कांगे्रस में कोई विकल्प खड़ा कर सकती है? मिस्टर चिदंबरम तमिलनाडु में एक सीट तो जीत नहीं पाते हैं। सत्ता में बैठे वीरभद्र सिंह, सिद्धारमैय्या, हरीश रावत क्या गांधी परिवार के बिना आगे बढ़ सकते हैं? दिग्विजय सिंह, शीला दीक्षित, अशोक गहलोत, ए.के. एंटनी, जयपाल रेड्डी, भूपेंद्र सिंह हुड्डा, कैप्टन अमरेंद्र सिंह, गुलाब नबी आजाद, कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया क्या गांधी परिवार के बिना कांगे्रस के नेतृत्वकर्ता के रूप में पार्टी खड़ी कर सकते हैं? इसीलिए मजबूरी में तिनके के सहारे की तरह ये सभी राहुल गांधी या सोनिया गांधी एवं प्रियंका गांधी का नाम ही सामने रखकर सत्ता की राजनीति में टिके रहना चाहते हैं। इसलिए सवाल प्रधानमंत्री पद का नहीं, सिंहासन के राज-काज में महत्व और हिस्सेदारी के लिए परिवारों का अपना महत्व है।
वैसे भारतीय जनता पार्टी गौरव के साथ दावा करती है कि वह कांगे्रस के परिवारवाद का विरोध करने के साथ स्वयं इस मानदंड को अपनाती है। एक हद तक सही है, क्योंकि अटल बिहारी वाजपेयी और नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री पद पर पहुंचे, लेकिन उनके परिवार के सदस्य राजनीति में नहीं आए। लेकिन परिवार क्या खून के रिश्ते के आधार पर ही बनता है? भारत में ब्रिटिश राज से पहले राजस्थान के महाराजाओं ने संतानें गोद लीं या भाई उत्तराधिकारी बने। मुगल शासन में तो परिवार में सत्ता के लिए खून-खराबे हुए। पसंदीदा उत्तराधिकारी बने। जिस ब्रिटेन से आजादी मिली, वहां लोकतंत्र के बावजूद आज भी महारानी (क्वीन) और प्रिंस की छत्रछाया हर सरकार पर रहती है। हर व्यक्ति को ब्रिटिश शासक के लिए वफादारी की शपथ लेने पर देश की नागरिकता मिलती है। बहरहाल, भाजपा के शीर्ष या प्रादेशिक नेता क्या ‘संघ परिवार’ के बिना सत्ता में आ सकते थे? अटल जी, आडवाणी जी, मुरलीमनोहर जोशी, मोदी जी, राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी सहित कई प्रादेशिक क्षत्रप भी क्या संघ परिवार यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक के आदर्शों, सलाहनुमा निर्देशों का उल्लंघन कर सकते हैं? अटल-आडवाणी जोड़ी परिवार के दो घनिष्ठतम सदस्य से कम माने जाते थे? संघ तो शीर्ष स्तर के स्वयंसेवक तक को ‘बंधु’ ही कहकर परिवार के बल पर आगे बढ़ना सिखाता है। भारतीय जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी संघ परिवार से ही पली-बढ़ी। बड़े नेता तक एक किचन में साथ खाना बनाकर खाते-खिलाते सत्ता तक पहुंचे। अटल जी को पं. दीनदयाल उपाध्याय ने उत्तराधिकारी की तरह आगे बढ़ाया। अटल जी ने आडवाणी को और दोनों ने नरेन्द्र मोदी को सत्ता के शिखर तक पहुंचाया। ये रिश्ते खून के रिश्ते से भी अधिक महत्व रखते रहे हैं। फिर जनसंघ-भाजपा में प्रादेशिक-राष्ट्रीय स्तर पर सिंधिया परिवार की धाक को कौन भूल सकता है। पिछले दिनों राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने पार्टी के वरिष्ठ राष्ट्रीय नेता से स्पष्ट शब्दों में दावा किया, ‘यह पार्टी मेरी मां राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने बनाई-बढ़ाई है। उनके नाम और काम से आप यहां तक पहुंचे हैं।’ वसुंधरा राजे दूसरी बार राजस्थान में एकछत्र राज कर रही हैं। वे अन्य राजनीतिक दलों के कुछ मुख्यमंत्रियों की तरह केंद्र में बुलाई जाने वाली मुख्यमंत्रियों की बैठक तक में नहीं रहतीं। केरल में भाजपा अधिवेशन के एक मुख्य कार्यक्रम में उनकी अनुपस्थिति ‘ठेंगा’ दिखाने वाली शैली में थी। कारण यह है कि वह अपने परिवार के नाम के बल पर राज चला रही हैं। अपने बेटे को उत्तराधिकारी की तरह सांसद बना चुकी हैं। भाजपा की दूसरी धारदार तलवार मेनका गांधी हैं। संजय-मेनका के सत्ताकाल में जेल जाने वाले नेता या कार्यकर्ता दो दशकों से मेनका गांधी (उसी नेहरू-गांधी परिवार की सदस्या) के बल पर उत्तर प्रदेश की चुनावी बिसात का लाभ उठाते रहे हैं। परिवार के नाम और काम के बल पर ही मेनका के पुत्र वरुण गांधी उ.प्र. के कुछ इलाकों में भाजपा की ताकत हैं। मुख्यमंत्री पद के दावेदार भी रहे हैं। पुराने नेताओं में जसवंत सिंह, यशवंत सिन्हा, सुंदरलाल पटवा, राजनाथ सिंह जैसे कई नेताओं के पुत्र-परिजन सत्ता की राजनीति में सक्रिय और सफल हैं। अरुण जेटली संघ की ही संस्था विद्यार्थी परिषद के संस्कारों और समर्थन से शीर्ष नेतृत्व की श्रेणी में पहुंचे। श्रीमती सुषमा स्वराज सीधे संघ की न होते हुए हरियाणा में संघ से जुड़े परिवार की ही नातिन रही हैं। इसलिए राज कोई करे, परिवार के संस्कार, नाम-काम सदा सत्ता की राजनीति को प्रभावित करते रहेंगे।