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चांद पर

कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित। अब तक चार कहानी संग्रह, दो कहानी संकलनों का संपादन। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडी की पूर्व फेलो। फोन: 9899817750
पैम‌िला मानसी

जुलाई 21, 1969

तन-मन से थकी सुमित्रा घर लौटी तो आकाशवाणी पर हो रही उद्घोषणा कानों में पड़ी, 'वन स्मॉल स्टेप फॉर ए मैन, वन जायंट लीप फॉर मैनकाइंड’ (इंसान के लिए छोटा सा कदम, मानवता के लिए बड़ी छलांग।’) रात के आठ बज रहे थे। सुमित्रा को चक्‍कर आ रहे थे।  सांसों में धुआं भर गया था जैसे। दिमाग की नसें खिंच रही थीं। बड़े से घर में उसे अपने लिए कोई कोना नहीं मिलता था, जहां बैठकर रो सके, मन-पसंद साहित्य पढ़ सके, गजलें सुन सके और कुछ पल बाहर के संसार को भूलकर, केवल एक अहसास बनकर जी सके। अभी-अभी वह एक ओझा के यहां से आई थी। झाड़-फूंक करने वाले के यहां उसका पति नरेंद्र उसे जबरदस्ती ले गया था। जब से उसने नरेंद्र के ताजा प्रेम-संबंध को लेकर आपत्ति जतानी आरंभ की थी, नरेंद्र का बात-बेबात चीखना-चिल्लाना बढ़ गया था। दिमाग की नसें हर समय खिंची रहतीं। लगता वह पागल हो जाएगी। एक दिन उसने कह ही दिया, 'हम लोग अलग हो जाएं तो बेहतर। मुझ से तुम्‍हारी यह बदसलूकी और नहीं सही जाती। मुझे भी सुकून चाहिए।’ तभी से समाज में अपनी छवि के प्रति सजग नरेंद्र ने आरोप लगाना शुरू कर दिया कि सुमित्रा की दिमागी हालत ठीक नहीं, इसलिए वह अनाप-शनाप बातें करने लगी है। सुमित्रा पिछले दो महीने से बीमार चल रही थी। हल्का बुखार शरीर को छोड़ ही नहीं रहा था। वह दुर्बल होती जा रही थी और उसके साथ उसकी सहन-शक्ति भी। ऐसे में किसी कमजोर पल में वह उठकर चल पड़ी थी नरेंद्र के साथ एक ओझा के यहां। वह उसे देखते ही कहने लगा, 'किसी अला-बला का साया है, साहब। शाम के समय किसी पेड़ के नीचे से गुजरी होंगी। सुंदर औरत को देखते ही पकड़ लेती हैं ऐसी चीजें।’ वह आश्चर्य से देखती रह गई थी। ओझा फिर बोला, 'तंत्र-मंत्र से काम लेना पड़ेगा, साहब। झाड़-फूंक करनी पड़ेगी। काफी खर्चा होगा।’

उसके साथ ऐसा तमाशा किया जाएगा, यह सुनते ही स्वयं पर बेहद लज्जा आई और उसने तेज स्वर में कहा, 'कुछ नहीं करवाना।’ वह तमतमाया चेहरा लिए बाहर आ गई। सुमित्रा की मुट्ठियां भिंच गईं। यह आदमी खुद को पढ़ा-लिखा और संभ्रांत मानता है। घर पहुंचते-पहुंचते एक बार फिर बेबसी ने घेर लिया। घुटन होने लगी। मन रोने-रोने को हो रहा था लेकिन ऐसा कोई कोना नहीं था, जहां बैठकर रो सके। रेडियो पर उद्घोषणा जारी थी, 'वन स्मॉल स्टेप फॉर ए मैन, वन जायंट लीप फॉर मैनकाइंड।’ क्‍या चांद पर होगा ऐसा कोई कोना जहां...

 

  3/4 अप्रैल, 1984

भारत के प्रथम अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा से तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पूछ रही हैं, 'अंतरिक्ष से भारत कैसा लगता है?’

अंतरिक्ष से संदेश आया, 'सारे जहां से अच्छा।’

'रियली!’ अनुपमा ने झल्लाकर फर्श पर पांव पटका। सब से पहले तो अपना घर ही इस लायक होना चाहिए कि कह सकें, 'सारे जहां से अच्छा।’ लेकिन कहां है ऐसा! घर नहीं, नर्क है यह। ऐसा भी क्‍या घर जहां बेटी की सुनवाई न हो। लेकिन यहां घर की स्वामिनी की सुनवाई ही कब हुई है जो बेटी की हो। वही सालों पुराना चलन दोहराया जा रहा है। पहले पिता जी थे, अब भाई है। कभी नए फैशन के कपड़े पहन लिए, किसी लडक़े से बात करते देख लिया, चाहे वो पड़ोस का बंटी ही क्‍यों न हो तो घर में कोहराम मच जाता था। 'घर की इज्जत का ध्यान है या नहीं। सडक़ पर खड़ी होकर लडक़ों से हंसी-मजाक करते शर्म नहीं आती?’ कहकर पिता सारी जिम्‍मेदारी मां पर डाल देते। इस ताकीद के साथ, 'संभाल कर रखो अपनी लाडली को।’

हंसी-मजाक यह कब हुआ? हो सकता है वह बंटी की किसी बात पर तनिक सा मुस्करा दी हो। लेकिन पिता जी की तो आदत थी, बात बिन बात मां पर चिल्लाने की। इसीलिए तो जीवन भर मां की आवाज सुनाई ही नहीं दी घर में। कभी कुछ कहने के लिए मुंह खोलने की कोशिश करती भी तो एक धौल जमा दिया जाता, 'खबरदार जो आगे से जबान चलाई। बीवी हो तुम मेरी।’ यह तर्क हमेशा मां को पस्त कर देता। बीवी पर आधिपत्य था, बेटी पर भी था, परंतु पता नहीं क्‍यों बेटे को कभी कुछ नहीं कह पाए। धीरे-धीरे वो भी उनकी ही आवाज में बोलने लगा। विशेषकर उनके न रहने के बाद। अभी भी तो बवाल मचाकर घर से निकल गया था। बात जरा सी थी। शाम के समय अनुपमा मां को यह कहकर निकली थी कि वह रागिनी के साथ पार्क में घूमने जा रही है। लेकिन किसी कारण रागिनी नहीं आ पाई। तभी कुछ दूरी पर रहने वाला उसका सहपाठी गिरीश मिल गया। वह उसके साथ उस दिन के लेख्‍र की बात करती हुई बेंच पर जा बैठी। भाई ने उन दोनों को साथ-साथ बैठे देख लिया और घर में पैर रखते ही हंगामा कर दिया, 'किसके साथ घूम रही थी?’ 'तुम उसे जानते हो भाई। गिरीश था। और मैं घूम नहीं रही थी उसके साथ।’ यह उत्तर भी था और प्रतिवाद भी। 'जानता हूं पार्क में बेंच पर बैठी थी उसके साथ। मत भूलो आसपास कॉलोनी भर के लोग घूम रहे थे। सबने देखा होगा तुम्‍हे।’ 'तो क्‍या हुआ?’ 'छत्तीस तरह की बातें करेंगे लोग। जान-पहचान वाले देखेंगे तो क्‍या सोचेंगे? मेरी बहन हो तुम।’ 'सिर्फ बहन ही नहीं मैं कुछ और भी...’

एक सनसनाता हुआ थप्पड़ पड़ा गाल पर। दर्द की तेज लहर उठते ही आंखों में पानी भर आया। वह तिलमिला उठी, 'सबको अपने जैसा मत समझो। मैं जानती हूं तुम उस...’ शब्‍द मुंह में ही रह गए। गाल, सिर, कंधों, सब पर थप्पड़ों की बारिश होने लगी। मां रसोई के दरवाजे पर चुपचाप खड़ी देखती रही। भाई गुस्से में बड़बड़ाता हुआ घर से बाहर चला गया तो उसने बिलखते हुए मां से कहा, 'तुम क्‍यों नहीं बोलती कुछ? आए दिन मुझे मार पड़ती है तुम्‍हारे सामने।’ मां उसे बांहों में समेट रुंधे गले से बोली, 'मैं क्‍या कहूं, कैसे कहूं बता। तेरे पिता के बाद घर की सारी जिम्‍मेदारी उसी पर है। मैं तो खुद उस पर निर्भर हूं।’ वह मां से अलग होकर अपने कमरे में चली आई। आंखों से आंसू भी बह रहे थे और लावा भी। 'अंतरिक्ष से भारत कैसा लगता है?’ 'सारे जहां से अच्छा।’ रेडियो बंद कर वह औंधे मुंह पलंग पर गिर गई।

नवंबर 2014 की एक रात     

रात के लगभग बारह बज रहे थे जब सिमी घर पहुंची। कॉल बेल पर रखा हाथ कांप रहा था, दिल धडक़ रहा था। पहली बार वह इतनी रात गए घर लौटी थी। वरुण का आदेश था कि उसे दस बजे तक लौटना होगा, ज्यादा से ज्यादा साढ़े दस तक। वह भरसक कोशिश करती कि ऐसा ही हो लेकिन दो-एक बार ग्यारह बज ही गए। कमरे का दरवाजा बंद करते ही वरुण बरस पड़ता लेकिन वह सिर झुकाए खामोश सब कुछ सुन लेती बिना प्रतिवाद किए ताकि घर के लोग उनके बीच हो रही तकरार को न सुन लें। वैसे ही घर में कोई विशेष जगह नहीं थी उसकी। दरवाजा वरुण ने ही खोला। बेडरूम में जाते ही वह चिल्लाया, 'बारह बजे। अब रात के बारह-बारह बजे घर लौटोगी तुम। कोई शर्म है या नहीं?’ वरुण का आक्रामक रूप देखकर सिमी दो कदम पीछे हट गई, 'तुम्‍हें बताया था न कि ऑफिस की सालाना पार्टी है। मैं ही सब से पहले आ गई हूं। बाकी सब तो अभी भी...।’ 'बाकी सब से क्‍या लेना है मुझको। मेरी बीवी तुम हो।’ 'काम तो मैं भी वहीं करती हूं न, वरुण।’ 'कौन जाने और क्‍या-क्‍या होता होगा वहां इतनी देर रात तक।’ सिमी भी आपा खोने लगी, 'इतनी बड़ी बात मत कहो।’ सिमी को धक्‍का देकर वरुण बोला, 'कहूंगा...हजार बार कहूंगा। मुझे तो बहुत पहले से शक है।’ 'होश में आओ, वरुण।’ वह लडख़ड़ाती हुई चिल्लाई। 'कॉरपोरेट जगत के बारे में जानते हो तुम। तुम खुद भी तो अक्‍सर आते हो बारह एक बजे तक।’ 'मेरे साथ मुकाबला करती हो। तुम औरत हो। औरत की तरह रहो।’ वरुण उसकी ओर बढऩे लगा। वह डरकर पीछे दीवार से सट गई। वरुण ने उसे कंधों से पकडक़र जोर से झिंझोड़ा। उसका सिर पीछे दीवार से टकराया। पीड़ा से तिलमिलाकर उसने वरुण को परे धकेलना चाहा। बदले में वरुण ने उसका सिर एक बार और दीवार पर पटक दिया। चेतना खोते दिमाग में पार्टी में हो रही बातचीत कौंधने लगी, पटवर्धन कह रहा था, 'आज का अखबार देखा है? अब इंसान सच में चांद पर घर बना सकेगा। वैज्ञानिकों के मुताबिक चांद पर घर बनाने का यह काम सन् 2020 तक शुरू हो जाएगा और आज से चालीस साल बाद लोग चांद पर रह पाएंगे।’ आसपास खड़े सब लोग अपनी अपनी राय जाहिर करने लगे। तभी हमेशा गंभीर रहने वाली और 'थिंकर’ कहलाने वाली दीप्ति अपने चश्मे को ठीक करती हुई, हाथ में पकड़े गिलास से एक घूंट भरती हुई बोली, 'महज चांद पर पहुंच जाने से क्‍या होगा सर? लोगों की मानसिकता भी तो जाएगी उनके साथ। फिर क्‍या फर्क रह जाएगा इस जमीन में और चांद में।’

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