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स्थानीय सरोकार से जुड़ता बॉलीवुड

मुंबई में पंजाब के लहलहाते खेत और रोमांटिक प्रेम कहानियों से इतर न सिर्फ नए विचार हैं बल्कि नए फिल्मकार और कलाकार भी हैं
आहना स‌िंह

अब बॉलीवुड में सिर्फ फिल्में ही नहीं बदल रहीं, फिल्म बनाने वाले भी बदल रहे हैं। आम चेहरे मोहरे वाले ही नहीं आम कहानियां भी मुंबइया उद्योग का हिस्सा हैं। ऐसी कहानियां दर्शकों को रुला देती हैं, जिसे देख कर लगता है कि जैसे बस बगल वाले मोहल्ले में ही यह घट गया है या फिर पता नहीं कितने सालों से ऐसे किस्से सुनते आए हैं। ग्लैमर की दुनिया में हर नजर एक नई इबारत को जोड़ती है। अब फिल्मी परिवारों के अलावा बाहर के लोगों का दायरा भी बढ़ रहा है और दबदबा भी। तीन पत्रकारों ने फिल्मी दुनिया में दस्तक दी है, जिनमें से मिस टनकपुर बनाने वाले विनोद कापड़ी, दोजख बनाने वाले जैगम इमाम एक बार दर्शकों से रूबरू हो चुके हैं और अब बारी है पहली बार फिल्म बनाने वाले अविनाश दास की। मिस टनकपुर भी स्थानीय स्तर से निकली कहानी थी तो दोजख भी। अब विनोद कापड़ी पिहू लेकर दर्शकों के सामने होंगे तो जैगम अपनी फिल्म अलिफ के लिए प्रशंसा पा रहे हैं। दोजख की तरह अलिफ भी एक सामाजिक संदेश देती कहानी है जिसमें जैगम मदरसा वर्सेज कॉन्वेंट को इतनी बारीकी से दिखाते हैं कि दर्शक सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि पहले कभी इस नजरिये से सोचा कैसे नहीं गया। दो बाल कलाकारों मोहम्‍मद सउद और ईशांत कौरव ने गजब भूमिका निभाई है। जैगम कहते हैं कि वह एक फिल्मकार और पत्रकार के बीच अंतर नहीं पाते क्‍योंकि फिल्म भी कहने की विधा है और पत्रकारिता भी। उनका मानना है, 'पत्रकार भी समाज के लिए काम करता है और फिल्मकार भी। मेरा मानना है कि सकारात्मक सिनेमा और सकारात्मक पत्रकारिता एक जैसे हैं। दोनों विधाओं में फर्क इतना है कि पत्रकारिता में सच और आंकड़ों की सीमा होती है जबकि सिनेमा में संभावनाओं और कल्पना का खुला आकाश है।’ जैगम न सिर्फ नई कहानी या नई दृष्टि के साथ हाजिर हैं बल्कि कलाकारों के लिए भी वह जोखिम उठाते हैं। उन्हें अपने पात्रों में इतनी विश्वसनीयता चाहिए कि वह मध्य प्रदेश काडर की आईपीएस सिमाला प्रसाद को फिल्म में एक भूमिका सौंप देते हैं। सिमाला इंदौर में लंबे वक्‍त तक सीएसपी रही हैं और अभी डिंडोरी की पुलिस अधीक्षक हैं। उन्होंने अपना किरदार इतने बेहतरीन तरीके से निभाया है कि दर्शक चकित रह जाते हैं। जैगम चाहते हैं कि दर्शक उन्हें उनकी आने वाली दूसरी फिल्मों में भी देखें। जैगम ने 10 साल की आहना सिंह को फिल्म में बहुत सशक्‍त भूमिका दी है। आहना सिंह की अभिनय की पृष्ठभूमि नहीं है लेकिन उन्होंने इस आत्मविश्वास से एक नेकदिल दोस्त का किरदार निभाया है कि लगता है जैगम अपने किरदारों में जान डालने के लिए वाकई जान लगा देते हैं।

फिल्मों में नई कहानियों के साथ फिल्मांकन, लोकेशन और संगीत पर भी अलग तरीके से काम कर उसे एक संपूर्ण पैकेज की तरह दर्शकों के सामने परोसा जा रहा है। अविनाश दास ने लंबे समय तक पत्रकारिता की और वह 'फिक्‍शन और रिएलिटी’ के फर्क को बहुत अच्छी तरह समझते हैं। अविनाश अनारकली ऑफ आरा नाम से फिल्म बस दर्शकों के सामने लाने ही जा रहे हैं। क्‍या यह फिल्म किसी असली किरदार पर है, पूछने पर वह कहते हैं, 'दाल में नमक बराबर।’ उनकी फिल्म में स्वरा भास्कर मुख्‍य किरदार निभा रही हैं। यह एक गायिका के जीवन की कहानी है जिसे उन्होंने पूरी शिद्दत से कई लोकेशंस पर फिल्माया है। बोली भाषा का महत्व जानने वाले अविनाश कहते हैं कि बिहार की टोन उनकी फिल्म की यूएसपी है। स्वरा ने अपने लहजे के लिए खास काम किया और बहुत मेहनत की है। दरअसल अविनाश ने यूट्यूब पर ताराबानो फैजाबादी का एक गाना सुना था, 'हरे-हरे नेबुआ कसम से गोल-गोल।’ इस म्‍यूजिक वीडियो में कुछ सेकेंड के लिए ताराबानो का फुटेज भी है। उसमें उनके चेहरे के सपाट भाव ने उन्हें एक स्ट्रीट सिंगर की कहानी कहने के लिए प्रेरित किया और बस फिल्म की रूपरेखा बनती चली गई। अपने आसपास चल रही घटनाओं और माहौल में से ही निकल कर नीरज घायवन ने मसान बनाई थी। एक म्‍यूजिक वीडियो ने अनारकली ऑफ आरा की नींव रखी और अलिफ की कहानी भी इससे अलग नहीं है। बनारस की पैदाइश और परवरिश वाले जैगम ने बचपन में बहुत सारे ऐसे बच्चों को देखा था जो पढऩा चाहते थे, दिमागी तौर पर तेज थे लेकिन उनको धर्म की शिक्षा के नाम पर एक खूंटे से बांध दिया गया। उन्हें उन बच्चों के लिए एक मिसाल पेश करनी थी। ऐसी मिसाल जो उन जैसे बच्चों को पढऩे और बढऩे के लिए प्रेरित करे। अलिफ बना कर उन्होंने वही मिसाल पेश की है जो बताती है कि बच्चे किसी भी धर्म या जाति के हों उन्हें पढऩे का मौका मिले तो वह कुछ भी कर सकते हैं। अविनाश और जैगम दोनों ही मानते हैं कि पत्रकार मूलत: कल्पनाशील होता है। खबरों की दुनिया में संभव है कल्पना की जगह न हो लेकिन उसी के सहारे खबरों को खोजना और अच्छा प्रस्तुतिकरण हो पाता है। अविनाश कहते हैं, अनारकली ऑफ आरा क्‍या है, एक खबर ही तो है। यदि इसे उस खांचे में ढाल दिया जाए तो क्‍या यह शानदार टीआरपी मैटर नहीं है।

अविनाश दास और जैगम इमाम उस दौर में हैं जब हॉलीवुड भी खंडवा से गुमशुदा और बाद में एक ऑस्ट्रेलियन दंपती द्वारा गोद ले लिए गए बच्चे शेरू पर लॉयन नाम से फिल्म बना रहा है। लॉयन में हॉलीवुड के ही होकर रह गए देव पटेल ने मुख्‍य भूमिका निभाई है। हॉलीवुड को शेरू की देसी कहानी में बहुत पोटेंशियल दिखाई दिया। शेरू का गुम होकर सारू बनने से भी ज्यादा दिलचस्प था, बड़ा होने के बाद गूगल मैप से खंडवा की तंग गलियों में रहने वाली अपनी मां को खोज निकालना। सारू जब भारत आए तो अखबारों में खूब छपा और अब लॉयन नाम से उनकी कहानी परदे पर है। पहले ऐसी गुमनाम कहानियां या स्थानीय रोचक घटनाएं सिर्फ अखबारों या टीवी चैनलों के नाम हुआ करती थीं, लेकिन अब बॉलीवुड ने सीख लिया है कि पेड़ों के आसपास नाचने गाने वाले मीठे गानों, खूब धूम-धड़ाके वाले आइटम सॉन्ग, ढिशूम-ढिशूम के अलावा और भी राहें हैं जो बॉलीवुड के मोड़ से हो कर गुजर सकती हैं।

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