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दलित एजेंडे में दम भरेगा माया का दांव

बसपा नेता ने उत्तर भारत की राजनीति में दिए नए समीकरण के संकेत
संसद भवन से बाहर आती मायावती

राज्यसभा में 18 जुलाई को भारी हंगामे के बीच जब बहुजन समाज पार्टी (बसपा) सुप्रीमो मायावती ने सदन की सदस्यता से इस्तीफा देने का ऐलान किया तो उनके इस कदम को लेकर दो तरह की त्वरित प्रतिक्रियाएं सामने आईं। उनके अंध-भक्त किस्म के बसपाइयों और अन्य शुभचिंतकों ने इसे 'बहन जी का ऐतिहासिक कदम’ माना। दूसरी तरफ, उनके आलोचकों, उनसे निराश कुछ दलित कार्यकर्ताओं और कई अन्य प्रमुख राजनैतिक दलों के नेताओं ने इसे गैर-वाजिब कदम बताया और कहा कि मायावती को संसद में रहकर पुरजोर ढंग से अपनी बात कहने की कोशिश करनी चाहिए, न कि सदन से बाहर आना चाहिए! सदन में उनकी मौजूदगी से दलितों के बीच यह एहसास रहता है कि उनकी नेता संसद में हैं और जरूरत पड़ने पर उनके लिए आवाज उठाएंगी। उनकी गैर-मौजूदगी से दलित समाज का यह एहसास खत्म हो जाएगा।

सत्ताधारी भाजपा किसी तरह की आत्मालोचना के मूड में नहीं थी, उसने उनके इस्तीफे को 'सियासी ड्रामा’ बताया। जिस तरह भाजपा के सांसद और कुछ मंत्री बसपा सुप्रीमो पर सदन के अंदर आक्रामक थे, उसी तरह वे इस्तीफे के बाद भी उन पर हमलावर होते दिखे। स्वयं मायावती ने दलील दी कि उन्हें सदन में जब अपने लोगों (दलित-बहुजन) के सवालों को उठाने की मंजूरी नहीं दी जा रही है, सत्ता पक्ष और मंत्री बोलने नहीं दे रहे हैं तो ऐसे में सदन में चुप बैठने का क्या औचित्य है!

मायावती के इस्तीफे की मंजूरी के साथ ही बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने बसपा सुप्रीमो को अपनी पार्टी के समर्थन से फिर से राज्यसभा में भेजने का आमंत्रण दे दिया। उन्होंने कहा कि बिहार में अगली बार जब राज्यसभा के लिए चुनाव होंगे तो राजद मायावती को अपना समर्थन देने के लिए सहर्ष तैयार है। उल्लेखनीय है कि कुछ समय पहले जब सीबीआई और अन्य केंद्रीय एजेंसियों ने पटना स्थित लालू यादव के घर पर छापे मारे और लगभग उनके समूचे परिवार के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराया तो सिर्फ माया, ममता और कांग्रेस ने ही इसे केंद्र सरकार की प्रतिशोधात्मक कार्रवाई की संज्ञा दी। लालू के समधी मुलायम और उनका परिवार पूरी तरह खामोश रहा, जबकि बिहार में उनके गठबंधन सहयोगी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार राजद कोटे से उप-मुख्यमंत्री बने तेजस्वी यादव को पद से हटाने की योजना बनाने लगे। इस परिघटना की रोशनी में देखें तो उत्तर भारत की राजनीति में नया सियासी समीकरण उभरता नजर आ रहा है। वह कमोबेश राष्ट्रपति चुनाव के दौरान भी दिखा है। कांग्रेस, राजद, टीएमसी और बसपा पहले से ज्यादा पास आए हैं, जबकि जदयू अपने पूर्व गठबंधन सहयोगी भाजपा की तरफ झुकती दिख रही है।

ऐसे परिदृश्य में बसपा सुप्रीमो के इस्तीफे के फैसले के निहितार्थ उतने गूढ़ नहीं हैं। सवाल है कि उनका फैसला बसपा और विपक्ष की राजनीति के लिए फायदे का साबित होगा या राजनीतिक घटनाक्रमों और दलबंदियों की आपाधापी में फुस्स हो जाएगा! जेएनयू के प्रोफेसर विवेक कुमार का मानना है कि इस इस्तीफे का बसपा और देश की राजनीति पर बड़ा असर पड़ेगा। मोदी सरकार से निराश और नाराज दलित-बहुजन समाज में नई गोलबंदी होगी। उन्होंने मायावती के इस्तीफे की तुलना डॉ. भीम राव आंबेडकर के इस्तीफे से करते हुए कहा, ''मायावती जी का फैसला आंबेडकर परंपरा के अनुकूल है। बाबा साहब ने 1951 में नेहरू मंत्रिमंडल में कानून मंत्री पद से हिंदू कोड बिल में महिलाओं के अधिकारों की उपेक्षा, समाज के अन्य पिछड़े वर्गों के लिए सरकार द्वारा आयोग न बनाने और एससी-एसटी के आरक्षण के सही क्रियान्वयन नहीं होने जैसे तीन बड़े मुद्दों पर विरोध प्रकट करते हुए इस्तीफा दिया था।’’ लखनऊ स्थित आंबेडकर महासभा के अध्यक्ष लालजी प्रसाद निर्मल कहते हैं, ''मायावती जी के इस्तीफे का समय उपयुक्त नहीं है।’’ इस बीच, सियासी गलियारों में ये अटकलें भी हैं कि मायावती इलाहाबाद की फूलपुर सीट से लोकसभा उपचुनाव में विपक्ष के साझा उम्मीदवार की तरह उतर सकती हैं। यह सीट उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के इस्तीफे से खाली होने वाली है। हालांकि मायावती ने इस बारे में अभी कुछ नहीं कहा है लेकिन अगर ऐसा होता है तो यह दिलचस्प सियासी घटना होगी, जिसका असर आगामी समीकरणों में दिख सकता है। बहरहाल, मायावती आज के बड़े सवालों को लेकर समाज और जनता के बीच सक्रिय ढंग से उतरती हैं तो वह इस्तीफे को अपने सियासी-सफर का 'टर्निंग प्वाइंट’ बना सकती हैं। आज पिछड़े वर्ग में भी उन्हें समर्थन मिल सकता है क्योंकि मुलायम की छवि पूरी तरह बर्बाद हो चुकी है। पर माया के सामने भी कुछ कम मुश्किलें नहीं हैं। दलित-बहुजन समाज के कार्यकर्ताओं, बौद्धिकों और विचारकों से उनकी दूरियां कम नहीं हो रहीं। क्योंकि वह अक्सर कई निहित-स्वार्थी तत्वों से घिरी रहती हैं। सांगठनिक बिखराव और दलित-बहुजन समाज और राजनीति में गहरा विभाजन है, ऐसे में यह काम आसान नहीं है। क्या वह मुश्किलों को पार कर पाएंगी?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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