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इतिहास कथा बॉलीवुड का नया फॉर्मूला

फॉर्मूला फिल्मों की असफलता के बाद हिंदी फिल्म इंडस्ट्री ने अपनाया नया चलन, ऐतिहासिक किरदारों को दिखाया जा रहा है बड़े पर्दे पर
द ब्लैक प्रिंसः अभिनेता सतिंदर सरताज इस बायोपिक में पंजाब के आखिरी शासक महाराजा दलीप सिंह की भूमिका निभा रहे हैं, जिन्हें 15 साल की उम्र में इंग्लैंड भेज दिया गया था

हमेशा की तरह हिट और टिकाऊ आइडिया की तलाश में बॉलीवुड इन दिनों ऐतिहासिक या सच्ची घटनाओं पर पीरियड ड्रामा फिल्में ला रहा है। इनमें से कुछ पीरियड फिल्में यथार्थपरक हैं तो वहीं कुछ अप्रामाणिक और संदेह से भरी हुई हैं। फिल्मकार जिन फिल्मों का निर्माण कर रहे हैं उनमें कुछ घटनाएं हाल की हैं तो कुछ काफी पुरानी। बी-टाउन में अतीत से जुड़े विषय खास होते जा रहे हैं। करोड़ों दर्शकों के बदले हुए टेस्ट को देखते हुए चोटी के स्टार भी फॉर्मूले से बाहर आ रहे हैं और मानवीय इच्छाशक्ति की जीत वाली कम प्रसिद्ध कहानियों को अपनाया जा रहा है, जो इतिहास के या पुराने अखबारों के धूल भरे पन्नों में दफ्न हैं।

19वीं शताब्दी के अंत में बहादुर सिख सैनिकों के लुटेरे अफगानों के खिलाफ युद्ध से लेकर लगभग एक सदी बाद 1998 के पोखरण में हुए परमाणु परीक्षण के रोमांच के इर्द-गिर्द बुनी गई कहानी तक को बड़े परदे पर तेजी से उतारा जा रहा है।

हाल ही में रिलीज हुई मिलन लूथरिया की फिल्म बादशाहो 70 के दशक के मध्य में लगी इमरजेंसी के दौर की कहानी है। कहा गया कि अजय देवगन की यह फिल्म उस घटना से प्रभावित है, जिसमें राजस्‍थान के जयगढ़ के किले पर खजाना खोदने के लिए सेना ने छापा मारा था। अफवाह थी कि यह सोना मुगल शासक के वफादार राजपूत सेनापति सवाई मान सिंह के समय से यहां गड़ा था। कहा जाता है कि जयपुर के पूर्व राजवंश के खिलाफ यह छापा तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के निर्देश पर डाला गया था। फिल्म के प्लॉट के लिए शायद इसी से प्रेरणा ली गई है।

सच्चाई का कोई दावा नहीं है क्योंकि फिल्म को एक काल्पनिक थ्रिलर की तरह प्रचारित किया गया कि यह छह ‘बदमाश’ किरदारों की कहानी है जो करोड़ों का सोना ले जा रहे सेना के ट्रकों का चार दिन में 600 किलोमीटर तक पीछा करते हैं। बादशाहो की स्क्रिप्ट लिखने वाले रजत अरोड़ा कहते हैं, “फिल्म निश्चित तौर पर इमरजेंसी के दौर पर है लेकिन यह पूरी तरह काल्पनिक है। हमने उस दौर की इस एक घटना को सुना जरूर है लेकिन हम नहीं जानते कि वह सही है या नहीं।”

वंस अपॉन अ टाइम इन मुंबई, द डर्टी पिक्चर, किक और गब्बर इज बैक जैसी ब्लॉकबस्टर फिल्में लिखने वाले अरोड़ा स्वीकार करते हैं कि इतिहास के पन्नों में छिपा कोई एपिसोड किसी प्लॉट के लिए दिलचस्प आइडिया हो सकता है। वह कहते हैं, “हम ज्यादातर बाहर से खासकर, पश्चिम से प्रभावित हो जाते हैं। जबकि हमारे पास न जाने कितनी ऐसी कहानियां हैं जिन्हें कहा जाना बाकी है।” भारतीय क्रिकेटर अजहरुद्दीन के जीवन पर आधारित फिल्म अजहर (2016) की स्क्रिप्ट लिखने वाले 42 वर्षीय अरोड़ा कहते हैं, “ऐसी कहानियां जरूरी ट्विस्ट से भरी पड़ी हैं। उन पर काम करने में हमेशा मजा आता है क्योंकि ये हमसे और हमारी संस्कृति से जुड़ी हैं।”

हालांकि अरोड़ा यह भी कहते हैं, “इतिहास पर फिल्में बनाना कोई नया चलन नहीं है। पहले भी कई महान ऐतिहासिक और पुराने समय की कहानियों पर फिल्में बनी हैं, जैसे मुगल-ए-आजम (1960)। बीच में यह क्रम टूट गया लेकिन बाजीराव मस्तानी (2014) और पद्मावती (निर्माणाधीन) जैसी फिल्में फिर से बन रही हैं।” वह कहते हैं, “आखिरकार, जो चीज मायने रखती है वह शैली नहीं बल्कि फिल्म का मनोरंजन वाला भाग है।”

द गुड महाराजाः नवानगर के शासक महाराज जाम साहब दिग्विजय सिंहजी रंजीत सिंहजी पर आधारित फिल्म। उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के समय सैकड़ों पोलिस बच्चों को शरण दी थी

लेकिन, इन फिल्मों की मांग इतनी है कि एक ही प्लॉट कई निर्माताओं को अपनी ओर खींचता है। मैरी कॉम (2014) के निर्देशक ओमंग कुमार ने अपनी अगली फिल्म द गुड महाराजा का पोस्टर लांच कर दिया है। इसमें संजय दत्त नवानगर के शासक महाराज जाम साहब दिग्विजय सिंहजी रंजीत सिंहजी का किरदार निभा रहे हैं। ओमंग अकेले नहीं हैं-आशुतोष गोवारिकर पहले ही इसी राजा पर एक फिल्म बनाने की प्रक्रिया में हैं। जिस बात ने दो फिल्मकारों को एक ही विषय पर काम करने के लिए उत्साहित किया, वह महाराजा की असाधारण जिंदगी है। दिग्विजय सिंहजी रंजीत सिंहजी ने दूसरे विश्व युद्ध के दौरान 640 पोलिश बच्चों को शरण दी थी।

यह अकेला प्लॉट नहीं है जिसके लिए फिल्मकारों में रेस लगी हुई है। कम से कम तीन अभिनेताओं/निर्देशकों ने सारागढ़ी के युद्ध पर अपनी दिलचस्पी दिखाई है। यह युद्ध 1897 में 21 सिख सैनिकों और 10,000 मजबूत अफगान कबीलाई सेना के बीच लड़ा गया। इस कहानी में अपार संभावना होने की वजह से अजय देवगन ने सबसे पहले इस पर संस ऑफ सरदार नाम से फिल्म की घोषणा की थी और पिछले साल इसका पोस्टर भी जारी किया था।

संस ऑफ सरदारः 21 सिखों और दस हजार अफगान कबीलाई सैनिकों के बीच 1897 में हुए सारागढ़ी के युद्ध पर बन रही तीन फिल्मों में से एक

इसके कुछ समय बाद यह बात सामने आई कि इसी थीम पर अक्षय कुमार को मुख्य भूमिका में रखते हुए करण जौहर और सलमान खान मिलकर फिल्म बनाना चाहते थे। अपने अच्छे दोस्त अजय देवगन की वजह से दबंग खान पीछे हट गए। जबकि अक्षय कुमार और करण जौहर इस थीम पर केसर नाम से फिल्म लाने के लिए तैयार हैं। सारागढ़ी के युद्ध से ही मिलती-जुलती थीम पर चुपचाप राजकुमार संतोषी भी रणदीप हुड्डा के साथ काम कर रहे हैं।

एक तरह की रुचि वाले विषयों के लिए गलाकाट संघर्ष कोई नया नहीं है। जाने-माने ट्रेड एनालिस्ट अतुल मोहन बताते हैं, “15 साल पहले एक ही समय पर भगत सिंह पर पांच फिल्में बनाई गईं।” वह कहते हैं, “ऐसा इसलिए होता है क्योंकि दर्शक ऐतिहासिक किरदारों और घटनाओं में दिलचस्पी रखते हैं। सिनेमा लोगों का मनोरंजन करने और उन्हें जागरूक करने का ऐसा सशक्त माध्यम है कि लोग ऐतिहासिक किरदारों से बहुत जल्दी जुड़ जाते हैं। आखिरकार, हर किसी ने थोड़ा-बहुत इतिहास स्कूल के दिनों में पढ़ रखा है।”

लेकिन इतिहास एक विवादास्पद विषय भी हो सकता है। कंप्लीट सिनेमा के संपादक मोहन फिल्मकारों को इतिहास से छेड़छाड़ करने के खिलाफ सावधान करते हैं। वह कहते हैं, “उनमें से ज्यादातर लोग तथ्यों के साथ छूट लेते हैं। एक सीमा के बाद ऐसा नहीं होना चाहिए।” कई फिल्मकार जिनकी हाल ही की फिल्में सच्ची घटनाओं पर आधारित थीं पर ऐसे ही आरोप लगे। मधुर भंडारकर की इंदु सरकार जो आपातकाल पर आधारित थी को कांग्रेस के लोगों के विरोध का सामना करना पड़ा। इन लोगों ने आरोप लगाया कि राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता निर्देशक ने फिल्म में इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी को गलत तरीके से पेश किया है।

महाराजा दलीप सिंह के वंशज भी द ब्लैक प्रिंस के निर्माताओं के खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट गए हैं। यह एक बहुभाषी फिल्म है, जो 19वीं शताब्दी में लाहौर के सिख साम्राज्य के आखिरी राजा पर आधारित है। इसे कवि राज ने डायरेक्ट किया है। राजा के वंशजों का आरोप है कि इस किरदार को तोड़मरोड़ कर पेश किया गया है। बेंड इट लाइक बेकहम (2002) वाली गुरिंदर चढ्ढा ने अपनी फिल्म वायसरायज हाउस से विभाजन को और अंग्रेजों के भारत में आखिरी दिनों को देखने का एक नया नजरिया दिया। यह फिल्म पिछले महीने हिंदी में पार्टिशन-1947 के नाम से रिलीज की गई। विवादों और मुकदमों ने भी कभी-कभी फिल्मकारों का रास्ता रोका है। जैसे, संजय लीला भंसाली की अगली फिल्म पद्मावती की शूटिंग के दौरान जयपुर में हिंसक विरोध हुआ। इस दौरान सेट पर आग भी लगा दी गई थी।

विशेषज्ञों का मानना है कि एक ही थीम की फिल्मों में बढ़ोतरी फिल्मी दुनिया के लोगों की झुंड वाली मानसिकता को भी दिखाती है। प्रमुख फिल्म वितरक अक्षय राठी कहते हैं कि इतिहास को नाटकीय अंदाज में पेश करने पर दूसरी शैली के मुकाबले फिल्म से दर्शकों के जुड़ाव की संभावना ज्यादा होती है लेकिन उन्हें अलग-अलग तरह की फिल्मों की जरूरत है। वह कहते हैं, “समस्या यह है कि जब सलमान खान की दबंग या अजय देवगन की सिंघम जैसी फिल्में ब्लॉकबस्टर होती हैं तो इंडस्ट्री का हर आदमी एक्शन फिल्में बनाने में लग जाता है और जब कल हो न हो (2003) हिट होती है तो दर्शकों को एनआरआई वाली फिल्में मिलने लगती हैं। यही हाल इतिहास पर बनने वाली फिल्मों का भी है।”

परमाणुः इस फिल्म की कहानी 1998 में राजस्थान के पोखरण में किए गए दूसरे परमाणु परीक्षण पर आधारित है। जॉन अब्राहम बना रहे हैं यह फिल्म

अब तक, समकालीन इतिहास फिल्मकारों के लिए समृद्ध साबित हो रहा है। जॉन अब्राहम की इस समय जो फिल्म बन रही है उसका नाम परमाणु-द पोखरण स्टोरी है। यह राजस्थान के रेतीले इलाके में 1998 में भारत द्वारा किए गए परमाणु परीक्षण पर आधारित है। यह जॉन अब्राहम की यथार्थवादी आधुनिक इतिहास आधारित दूसरी फिल्म होगी। 2013 में वह मद्रास कैफे के साथ आए थे, जो 1980 की श्रीलंका की उन स्थितियों की असाधारण थीम पर बनी थी, जिसकी वजह से पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की लिट्टे द्वारा 1991 में हत्या हुई थी। इस साल करण जौहर के सह-निर्माण में बनी द गाजी अटैक में 1971 के बांग्लादेश युद्ध में पाकिस्तानी पनडुब्बी गाजी को भारतीय नौसेना द्वारा नष्ट करने की कहानी थी। युद्घ की पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म को काफी पसंद किया गया था।

फिल्म लेखक विनोद अनुपम कहते हैं, “यह विश्वास करना तो तार्किक रूप से गलत होगा कि भारत का सिनेमा फॉर्मूला फिल्मों के बाद इतिहास की फिल्मों के माध्यम से यथार्थपरक सिनेमा की तरफ अचानक मुड़ गया है। लेकिन हम एक राष्ट्र के तौर पर ऐतिहासिक फिल्मों को बहुत पसंद करते हैं और इसीलिए फिल्म इंडस्ट्री इस तरह की थीम उठा रही है। यह आम जनता के संघर्षों की कम सुनी गई कहानियों को भी फिल्मों का विषय बना रही है लेकिन अच्छे प्लॉट के लिए उसे अब भी पुराने फॉर्मूले से काम चलाना पड़ता है।”

अनुपम कहते हैं, “बॉलीवुड भगत सिंह पर पांच फिल्में एक साथ बना सकता है क्योंकि कहानी में एक्शन है लेकिन इसे मोहनदास करमचंद गांधी या डॉ. भीमराव आंबेडकर पर फिल्म बनाने में हिचक होती है क्योंकि इनकी जिंदगी में कॉमर्शियल सिनेमा के हिसाब से कम ट्विस्ट और मोड़ माने जाते हैं।” वह कहते हैं, “गांधी की सादगी पर रिचर्ड एटेनबरो को फिल्म बनानी पड़ती है।”

राष्ट्रीय अवॉर्ड विजेता लेखक कहते हैं, “बॉलीवुड असल जिंदगी की घटनाओं को ढूंढ़ने के लिए बाध्य है क्योंकि दर्शकों ने घिसे-पिटे प्लॉट को खारिज करना शुरू कर दिया है।” वह कहते हैं, “लेकिन यह कहना सही नहीं है कि फिल्म इंडस्ट्री ने अपने मसाला फिल्मों वाले लटके-झटके छोड़ दिए हैं। बॉलीवुड अब भी मानने को तैयार नहीं है कि बरेली की बर्फी (2017) भी एक हिट फिल्म हो सकती है।”

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