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यथार्थवादी संगीतकार

पंडित रविशंकर का फिल्मु संगीत आम परिपाटी से अलग प्रगतिशील धारा को रेखांकित करता था
पश्चिम से मेलः पॉप ग्रुप बीटल्स के जॉर्ज हैरिसन के साथ रविशंकर

शास्‍त्रीय संगीत और सितार की दुनिया के अंतरराष्‍ट्रीय विराट व्‍यक्तित्‍व पंडित रविशंकर ने फिल्‍मों में भी अविस्‍मरणीय संगीत दिया है। एक तरफ उन्‍होंने नट भैरव, कामेश्‍वरी और परमेश्‍वरी जैसे नए रागों को श्रोताओं तक पहुंचाया, तो दूसरी तरफ पाश्‍चात्‍य संगीत के साथ फ्यूजन की नई दिशाएं भी खोजीं। हिंदी फिल्‍मों में रविशंकर का पदार्पण चेतन आनंद निर्देशित नीचा नगर (1946) और ख्‍वाजा अहमद अब्बास निर्देशित धरती के लाल (1946) जैसी प्रगतिशील यथार्थवादी फिल्‍मों से हुआ। नीचा नगर को 1947 में फ्रांस के फिल्‍म समारोह में 11 प्रविष्टियों में स्‍थान हासिल करने का गौरव प्राप्‍त हुआ था। ‘एक निराली ज्‍योत बुझी है’, ‘कब तक घिरी रात रहेगी’ और ‘उठो कि हमें वक्‍त की गर्दिश ने’ जैसे फिल्मी गीतों के माध्यम से रविशंकर ने शोषण, वर्ग-भेद के विरुद्ध संघर्ष को रेखांकित करता उल्‍लेखनीय संगीत दिया था। यह फिल्‍म संगीत की आम परिपाटी से अलग प्रगतिशील धारा को रेखांकित करता था।

बिजोय भट्टाचार्य के बांग्‍ला नाटक नबन्‍न पर आधारित फिल्‍म धरती के लाल का ‘भूखा है बंगाल’ तीखा यथार्थवादी गीत था जिसे रविशंकर ने सुंदरता से कंपोज किया था। फिल्‍म में ‘केकरा केकरा नाम बताव इस जग में बड़ा लुटेरवा हो’, ‘बीते हो सुख के दिन आई दुख की रतियां हो रामा’, ‘अब न जबां पर ताले डालो’ (मुमताज शांति) जैसे अली सरदार जाफरी, प्रेम धवन, नेमिचंद जैन और वामिक के लिखे कई यथार्थवादी और प्रगतिशील गीत थे। रविशंकर ने इन गीतों को लोक और शास्‍त्रीय शैलियों के सुंदर समन्‍वय के साथ प्रस्‍तुत किया था। साउंड ट्रैक पर आलापों और तानों के साथ कहानी के अंत को रेखांकित करती कंपोजीशन थी जिसका रेकॉर्ड निकला था। शीर्षक संगीत में कोरस के प्रभाव से पीड़ित मानवता की पुकार की सुंदर अभिव्‍यक्ति आज तक याद की जाती है।

पंडित रविशंकर ने सत्‍यजित राय की पाथेर पांचाली में भी सितार बजाया था। डॉ. इकबाल की प्रसिद्ध रचना ‘सारे जहां से अच्‍छा हिंदोस्‍तां हमारा’ के भी स्‍वरकार रविशंकर थे। हृषिकेश मुखर्जी ने अनुराधा के लिए लता मंगेशकर से संगीतकार बनने का अनुरोध किया था। लता के तैयार न होने पर उस समय के चोटी के संगीतकार शंकर-जयकिशन फिल्‍म में रचनात्‍मक संगीत की संभावनाओं को देखते हुए मात्र बीस हजार रुपये में अनुराधा का संगीत देने के इच्‍छुक थे। लेकिन हृषिदा ने पंडित रविशंकर को फिल्‍म के संगीत का जिम्‍मा सौंपा। अनुराधा के गीतों की धुन एक दिन में तैयार हो गई। यह रविशंकर की अदम्‍य प्रतिभा का उदाहरण है। गीतों की धुन से लेकर ऑरकेस्‍ट्रेशन की बारीकी रविशंकर अपने निर्देशन में संवारते थे। भिन्‍न शास्‍त्रीय रागों और सितार के अद्भुत ऑरकेस्‍ट्रेशन से सजाए लता के चार खूबसूरत गीतों को आम श्रोताओं के बीच भले ही मकबूलियत न मिली हो, पर भैरवी में ‘सांवरे-सांवरे’ की सुरीली तानें, तिलक कामोद में ‘जाने कैसे सपनों में’ की मीठी लहरियां, मांझ खमाज में ‘कैसे दिन बीते’ की अंतर्वेदना और जंसमोहिनी में ‘हाय रे वो दिन’ का उद्गार कौन सुरुचिपूर्ण संगीत प्रेमी भुला पाएगा? ‘ले के दिल का साज हम गीत गाने आ गए’ (मन्‍ना डे, महेंद्र कपूर, साथी) में अलग सी कर्णप्रिय रिद्म से रविशंकर ने बहुत सुंदर समां बांधा था। 

प्रेमचंद के अमर उपन्‍यास गोदान (1963) में अवधी और पूरबी लोक संगीत का रविशंकर ने ऐसा स्‍पर्श दिया कि असफलता के बावजूद फिल्म के गीत लोकप्रिय रहे। रफी के स्‍वर में ‘पिपरा के पतवा सरीखे डोले मनवा’ में आह्लाद है, तो तिलक कामोद के सुर लगाकर सृजित चैती ‘हिया जरत रहत दिन रैन हो रामा’ का बांसुरी और सितार के कोमल आरंभ के बाद मुकेश का स्‍वर अभिभूत करता है। रविशंकर ग्रामीण-संगीत के हर रूप में माधुर्य बिखेर रहे थे। शहनाई, सितार, बांसुरी और घुंघरू के साथ प्रकृति के चंचल रूप को साकार करते परिदृश्‍य के बीच मांझ खमाज के लोकरूप में ‘जाने काहे जिया मोरा डोले रे’ (लता), ताल वाद्यों के लोक रिद्म के साथ ‘ओ बेदर्दी क्‍यों तड़पाए’ (गीता, महेंद्र कपूर, साथी), बांसुरी, शहनाई, जलतरंग और सितार की सहलाती लहरों के बीच पारंपरिक पूरबी सोहर धुन ‘जनम लियो ललना’ (आशा, साथी), पारंपरिक ग्रामीण होली गीत ‘जोगीरा सा रा रा’ (रफी, साथी) और राग देस का लोकरस आधारित बिदाई गीत ‘चली आज गोरी पिया की नगरिया’ (लता) सभी एक से बढ़कर एक थे। ग्रामीण परिवेश का इतना सुंदर संगीत शायद ही हिंदी फिल्‍म-संगीत में दोबारा आया। इस फिल्‍म का ऑरकेस्‍ट्रेशन तो अद्भुत था ही, हर इंटरल्‍यूड भी अलग-अलग वाद्य-संयोजन की नवीनता लेकर आया था।

वर्षों बाद गुलजार निर्मित मीरा के लिए रविशंकर फिर आए। रविशंकर ने मीरा (1979) में वाणी जयराम से गवाया। यमन आधारित ‘जो तुम तोड़ो पिया’, भैरवी आधारित ‘श्‍याम मने चाकर राखो जी’, गुजरी तोड़ी पर सृजित ‘ए री मैं तो प्रेम दीवानी’, खमाज आधारित ‘मेरे तो गिरधर गोपाल’, जयजयवंती आधारित ‘प्‍यारे दर्शन दीजो’, गुजरी तोड़ी पर सृजित ‘बाला मैं बैरागन’, मल्‍हार आधारित ‘बादल देख डरी’ और देस आधारित ‘मैं सांवरे के रंग’, गीतों को वाणी जयराम ने मन से गाया। ‘ए री मैं तो प्रेम दीवानी’ की रेकॉर्डिंग के समय तो रविशंकर ने वाणी जयराम से ‘ए री मैं तो प्रेम दीवानी’ और ‘मेरा दर्द न जाने कोए’ पंक्तियों को ऊंची पट्टी पर गवा कर ऐसे मिलाया कि अचंभित करने वाला इको इफेक्ट पैदा हुआ। गीतों को लोकप्रियता नहीं मिली। लेकिन वाणी जयराम को फिल्‍म फेयर का सर्वश्रेष्‍ठ गायिका पुरस्‍कार मिला। 

ब्रिटिश पॉप ग्रुप बीटल्स के साथ काम करके रविशंकर ने भारतीय संगीत को पाश्‍चात्‍य संगीत का अंग बनाया था। बांग्‍लादेश की स्‍वाधीनता कंसर्ट में जॉर्ज हैरिसन के साथ रविशंकर शामिल थे। यहूदी मेनुहिन के साथ रविशंकर की जुगलबंदी को संगीत-इतिहास का मील स्तंभ माना जाएगा। ज्यां रामपाल, यामामोतो और मिशासिता जैसे सगीतज्ञों के साथ रविशंकर ने भारतीय संगीत की आध्‍यात्मिकता को पश्चिमी संगीत फलक तक पहुंचाने में योगदान दिया। स्‍वीडन की रॉयल संगीत अकादमी के पोलर संगीत सम्‍मान, पद्मभूषण और 1999 में भारत के सर्वोच्च सम्‍मान भारत रत्‍न से नवाजे गए।

 (लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी एवं संगीत विशेषज्ञ हैं)

 

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