Advertisement

हिंदू-मुस्लिम युग्म के सांप्रदायिक चश्मे के ठीक उलट

कश्मीर के सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक पहलुओं के बारे में बताने वाली महत्वपूर्ण पुस्तक
कश्मीर की कहानी बताने वाली पुस्तक

आजादी मिलने के साथ ही भारतीय उपमहाद्वीप का विभाजन हो जाने के समय से ही कश्मीर भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद का केंद्रीय मुद्दा बना हुआ है। 1948 में पाकिस्तान ने अपनी सेना के साथ-साथ कबाइली लश्कर भेजकर उसे बलपूर्वक हड़पने की कोशिश की और जम्मू-कश्मीर राज्य के एक अच्छे-खासे हिस्से पर कब्जा कर लिया। 1965 और फिर 1999 में यही कोशिश दोहराई गई। सिर्फ 1971 का युद्ध बांग्लादेश के सवाल पर लड़ा गया; यानी दोनों देशों के बीच अब तक हुए चार युद्धों में से तीन कश्मीर पर हुए हैं। कश्मीर विवाद का एक आंतरिक पहलू भी है जिसका संबंध वहां के लोगों के बीच असंतोष-कुछ के दिलों में कश्मीर को आजाद मुल्क बनाने की महत्वाकांक्षा और कुछ के मन में पाकिस्तान के साथ विलय की इच्छा है। अखबार कश्मीर की खबरों से पटे रहते हैं क्योंकि वहां देश के अन्य भागों में पाकिस्तान-समर्थित आतंकवाद का बहाना बनाकर समय-समय पर हिंसक घटनाओं को अंजाम दिया जाता रहा है।

इसके बावजूद देश की प्रमुख भाषा हिंदी में अभी तक कश्मीर के अतीत और वर्तमान पर ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक पहलुओं के बारे में जानकारी देने वाली एक भी पुस्तक नहीं थी। इस शून्य को भरने के लिए युवा कवि और सक्रिय संस्कृतिकर्मी अशोक कुमार पाण्डेय ने विस्तृत अध्ययन और गहन चिंतन के आधार पर 461 पृष्ठों की यह पुस्तक लिखी है जो कश्मीर के बारे में समग्र और प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध कराती है। 

लेखक ने ‘भूमिका’ में ही स्पष्ट कर दिया है कि उसका उद्देश्य “बौद्ध, शैव और सूफी इस्लाम के संघनित मिश्रण” से बनी “विशिष्ट कश्मीरी संस्कृति” को समझना है और उनकी कोशिश ‘‘उसी रौशनी में वहां के इतिहास को अतिरेक से परे उसके आवश्यक अवयवों के साथ देखने की रही है।”

जाहिर है यह कोशिश कश्मीर के इतिहास को हिंदू-मुस्लिम युग्म के सांप्रदायिक चश्मे से देखने के ठीक उलट है। यही कारण है कि वह कश्मीर के इतिहास, कश्मीरी समाज और संस्कृति के विकास की ऐतिहासिक प्रक्रिया और आज उसमें हो रही उथल-पुथल को निष्पक्ष और तटस्थ ढंग से समझने और समझाने में सफल रहे हैं। एक ही स्थान पर इन सभी पहलुओं पर प्रामाणिक जानकारी और विश्वसनीय व्याख्या प्रस्तुत करने वाली पुस्तक संभवतः अंग्रेजी में भी उपलब्ध नहीं है।

बारहवीं शताब्दी में रचित कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ में उल्लेखित कश्मीर के बारे में प्रचलित मिथकों, महाभारतकालीन नायकों के साथ उसके संबंध, अशोक एवं कनिष्क तथा मिहिरकुल जैसे प्रतापी शासकों के अधीन उसकी स्थिति, बौद्ध राजा रिंचन के इस्लाम स्वीकार करने के बाद कश्मीर के इतिहास में आए ऐतिहासिक मोड़ और बाद में जैन-उल-आब्दीन के प्रसिद्ध शासन-सभी के बारे में लेखक ने विस्तार के साथ लिखा है और संदर्भ उद्धृत करते हुए इन घटनाओं पर अपनी सुचिंतित राय पाठकों के सामने रखी है। इन आरंभिक अध्यायों में पाठक को कश्मीरी समाज और राज्यव्यवस्था की जटिल बुनावट बनने की प्रक्रिया से परिचित होने का अवसर मिलता है ताकि वह बाद के विकासक्रम को उसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देख और समझ सके।

कश्मीर की अर्थव्यवस्था का विकास किस तरह हुआ है, वहां के भूमि-संबंधों की संरचना ने पिछली शताब्दी की राजनीति को किस तरह प्रभावित किया है और हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक राजनीति ने मिलकर किस तरह से धर्मनिरपेक्ष ताकतों को निष्प्रभावी बनाने के लिए लगातार प्रयास किया है, इस सब की समझ के लिए भी इस पुस्तक को पढ़ना जरूरी है।

शेख अब्दुल्ला की भूमिका और उसमें आए विभिन्न नाटकीय मोड़ों पर भी विस्तार से वर्णन है। 1947 से लेकर आज तक के इतिहास का तथ्यपरक विवरण और विवेचन इस पुस्तक की विशेषता है। इसे पढ़कर समझ में आ जाएगा कि क्यों संविधान से अनुच्छेद 370 हटना असंभव है और क्यों कश्मीरी पंडितों की घाटी में वापसी और पुनर्वास बेहद कठिन है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि लेखक ने तथ्यों के आलोक में ही कश्मीर को समझने की कोशिश की है, पूर्वाग्रहों के आधार पर नहीं। इसलिए हर बात को पाद टिप्पणियों (फुट नोट्स) में संदर्भ देकर पुष्ट किया गया है।

पुस्तक का विशेष आकर्षण उसके अंत में दिए गए नौ परिशिष्ट और संदर्भ ग्रंथ सूची है जो इस विषय पर आगे अध्ययन या शोध करने वालों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होगी।

Advertisement
Advertisement
Advertisement