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“अतिक्रमण में दबते तालाब : शहरीकरण की बेरहम कहानी”

शहरों के फैलते नक्शे में सबसे पहले मिटने वाला स्थान अक्सर तालाब होता है। कभी गाँव और कस्बों के मध्य में...
“अतिक्रमण में दबते तालाब : शहरीकरण की बेरहम कहानी”

शहरों के फैलते नक्शे में सबसे पहले मिटने वाला स्थान अक्सर तालाब होता है। कभी गाँव और कस्बों के मध्य में बने तालाब जीवन का केंद्र हुआ करते थे - पूजा, विवाह, तीज-त्योहार, खेलकूद, पानी भरना, जानवरों को नहलाना -सबकुछ इन्हीं के चारों ओर होता था। लेकिन आज वही तालाब कंक्रीट की बस्तियों के नीचे दब रहे हैं। नगरों के शहरी विकास ने पारंपरिक जल-संरचनाओं की अहमियत को भुला दिया है। भूमाफिया और रियल एस्टेट लॉबी ने इन्हें ज़मीन के खाली टुकड़े मान लिया है। और जब शासन-प्रशासन की चुप्पी या मिलीभगत हो, तो ये तालाब धीरे-धीरे नक्शे से भी ग़ायब हो जाते हैं। पहले पाटे जाते हैं, फिर रेत और मलबे से भरे जाते हैं, और अंततः प्लॉटिंग कर दी जाती है। यही प्लॉट कुछ वर्षों में दुकान, मकान या शॉपिंग मॉल में बदल जाता है। पानी, जो कभी वहाँ का आधार था, अब वहाँ से भटककर बस्तियों में घुस आता है। इस अतिक्रमण से भूजल स्तर गिरता है, बारिश का जल ठहरता नहीं और शहर जलजमाव से कराहते हैं। तालाब का मरना केवल एक प्राकृतिक संसाधन का अंत नहीं, एक सांस्कृतिक मृत्यु भी है। और विडंबना यह है कि यह मृत्यु हमारी आँखों के सामने, हमारी सहमति से हो रही है।

अतिक्रमण की इस कहानी के उदाहरण देश भर में बिखरे पड़े हैं, जिनमें प्रशासन की लापरवाही और स्थानीय दबाव साफ दिखते हैं। उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी ज़िले में सुंदरवल गाँव का मामला सामने आया, जहाँ सरकारी तालाब की भूमि पर दिनदहाड़े दुकानें बना दी गईं। स्थानीय लोगों ने विरोध किया, लेकिन राजस्व विभाग मौन रहा। अयोध्या के मीरापुर मोहल्ले में स्थित एक ऐतिहासिक तालाब लगभग पूरी तरह पाट दिया गया। 90% हिस्से में अब निर्माण हो चुका है। बिजनौर ज़िले के नहटौर कस्बे में 120 बीघा तालाब पर वर्षों से अवैध कब्जा था, जिसे प्रशासन ने हाल ही में मुक्त कराया। ये घटनाएँ बताती हैं कि अतिक्रमण केवल ग़रीबों की ज़रूरत से नहीं, बल्कि पैसे और सिफारिश की ताक़त से होता है। कहीं तालाब को स्कूल बनाने के बहाने कब्जाया जाता है, तो कहीं पार्क का नाम देकर दीवार खड़ी कर दी जाती है। और फिर वो दीवार साल-दर-साल पक्के निर्माण में बदल जाती है। अफ़सोस की बात है कि जिन दस्तावेज़ों में तालाब दर्ज हैं, वहाँ भी प्रशासनिक रिकॉर्ड को नकार दिया जाता है। इससे यह साबित होता है कि काग़ज़ की लड़ाई सिर्फ ईमानदार नागरिक ही हारते हैं, भूमाफिया नहीं।

तालाबों पर कब्जा केवल ज़मीन के स्तर पर नहीं होता, यह जलचक्र को भी तोड़ देता है। एक तालाब जो पहले गाँव या बस्ती का जलसंचयन केंद्र था, अब वह डंपिंग यार्ड या सीवेज का गड्ढा बन गया है। जब हम तालाब पाटते हैं, तब हम वर्षा जल के एक स्वाभाविक संग्रहण स्थल को खत्म कर देते हैं। इससे भूजल रिचार्ज रुक जाता है, और लोगों के हैंडपंप, कुएँ व बोरिंग सूखने लगते हैं। शहरों में जलभराव की बढ़ती घटनाएँ भी तालाबों के अतिक्रमण से जुड़ी हैं, क्योंकि पहले जो पानी तालाब में ठहरता था, अब वह सड़कों पर बहता है। जलजनित रोग बढ़ते हैं, मच्छर पनपते हैं, और स्थानीय निवासियों की सेहत बिगड़ती है। पर्यावरणीय असंतुलन के अलावा यह सामाजिक विघटन भी लाता है — क्योंकि जिन तालाबों पर समुदाय एकत्र होता था, वह स्थान अब निजी हो गया है। बच्चे अब तालाब किनारे खेलते नहीं, बल्कि मॉल की पार्किंग में घूमते हैं। प्रकृति और मनुष्य का जो गहरा संबंध तालाबों के माध्यम से बना था, वह टूट चुका है। और एक बार टूट जाने पर इसे फिर से जोड़ना आसान नहीं होता। इसलिए यह संकट केवल भौगोलिक नहीं, भावनात्मक और सामाजिक भी है।

प्रशासन की चुप्पी इस संकट की सबसे खतरनाक परत है। जब शिकायतें दर्ज होती हैं, तो उन्हें ‘पुराना मामला’ या ‘न्यायालय में लंबित’ कहकर टाल दिया जाता है। पटवारी से लेकर जिलाधिकारी तक की फाइलें महीनों चलती हैं, लेकिन कार्रवाई नहीं होती। कई बार तो सरकारी रिकॉर्ड से तालाब की पहचान ही मिटा दी जाती है - या तो उसे ‘खाली भूमि’ दर्ज कर दिया जाता है या ‘अराजी’ घोषित कर दिया जाता है। यही वह प्रशासनिक चाल है जिससे जमीन का मालिकाना बदल जाता है। स्थानीय नेताओं और अफसरों की मिलीभगत से तालाब पाटे जाते हैं, और ज़मीन का नक्शा बदल जाता है। यही कारण है कि भारत के अधिकांश शहरों और कस्बों में आज के तालाब केवल ‘कहानी’ रह गए हैं। बच्चे पूछते हैं: “तालाब क्या होता है?” और हम तस्वीर दिखाकर बताते हैं। यह एक सांस्कृतिक शून्यता है, जो चुपचाप हमारे चारों ओर पनप रही है। और जब समाज अपनी स्मृतियों को ही खो देता है, तो उसका भविष्य भी धुँधला हो जाता है। इसलिए प्रश्न अब केवल प्रशासन से नहीं, हम सब से भी है—हम क्या खो रहे हैं?

फिर भी आशा की कुछ किरणें बाकी हैं। कुछ जिलों में जागरूक जिलाधिकारियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और स्थानीय लोगों की पहल से तालाबों को बचाया गया है। गोंडा की डीएम नेहा शर्मा ने तालाब की भूमि से अतिक्रमण हटवाया और उसे सार्वजनिक स्थल के रूप में पुनर्स्थापित किया। नोएडा में 1.93 लाख वर्गमीटर भूमि को अतिक्रमण मुक्त कराया गया, जिसमें कई तालाब भी शामिल थे। इसी तरह, ‘पॉन्डमैन ऑफ इंडिया’ के नाम से प्रसिद्ध रामवीर तंवर ने अपने प्रयासों से 100 से अधिक तालाबों का पुनर्जीवन किया। ये उदाहरण हमें बताते हैं कि यदि इच्छाशक्ति हो तो तालाबों को फिर से जीवित किया जा सकता है। सामाजिक भागीदारी, पारदर्शिता और स्थानीय निगरानी इस आंदोलन की रीढ़ हो सकती है। लेकिन यह तभी संभव है जब यह भावना केवल पर्यावरणविदों तक सीमित न रह जाए, बल्कि आम नागरिकों का भी सरोकार बन जाए। जब लोग पूछें - “ये तालाब कहाँ गया?” - और फिर आगे बढ़कर कहें -“हम इसे वापस लाएँगे।” तब ही कोई परिवर्तन संभव है।

अंततः, तालाबों का संरक्षण केवल जल प्रबंधन का सवाल नहीं, बल्कि हमारी संस्कृति, विरासत और भावी पीढ़ियों के अधिकार का सवाल है। यह अतिक्रमण केवल भूमि हथियाने की कहानी नहीं, बल्कि एक सभ्यता के स्मृति-चिन्हों को मिटाने की साज़िश है। अगर हमने अब भी नहीं चेता, तो आने वाले वर्षों में बच्चों को तालाब केवल किताबों में मिलेंगे — जैसे आज सिंधु घाटी की सभ्यता मिलती है। हमें यह समझना होगा कि तालाब केवल पानी का स्रोत नहीं, सामाजिक एकता, परंपरा और पर्यावरण का बुनियादी आधार हैं। प्रशासन को सख़्त नीति अपनानी होगी, तालाबों का डिजिटल नक्शा तैयार कर सार्वजनिक करना होगा, और प्रत्येक अवैध निर्माण पर सज़ा तय करनी होगी। साथ ही हमें शिक्षा, संवाद और सामूहिक प्रयासों के ज़रिए यह चेतना फैलानी होगी कि “तालाब बचाओ” केवल नारा नहीं, आवश्यकता है। यदि हम सच में एक जीवंत समाज की कल्पना करते हैं, तो हमें उसके ‘जल स्रोत’ को नहीं, ‘जल चेतना’ को पुनर्जीवित करना होगा।

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