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राहुल के अज्ञातवास की पटकथा

राहुल के अज्ञातवास की पटकथा

कांग्रेस नेतृत्व के पीढ़ीगत बदलाव में अपनी-अपनी जगह सुनिश्चित करने की कोशिशें राहुल गांधी के इस झटकेदार कदम से जाहिर होने लग गईं। दिग्विजय सिंह, पी.सी. चाको, कमलनाथ, चिदंबरम और जयराम रमेश सब अपने-अपने रवैयों के साथ सामने आने लगे। भूमि अधिग्रहण मसले पर पार्टी की नीति के बारे में जयराम रमेश और वीरप्पा मोइली ने बारीकी से अलग-अलग सुर बजाए। अपनी मनमोहन सरकार के दौरान ही नियमगिरि दौरे के समय से राहुल गांधी उद्योग हित में भू-अधिग्रहण मसले पर जिस नजरिये के साथ मुखर हुए थे उसका नतीजा था 2013 का भूमि अधिग्रहण कानून। हालांकि संप्रग सरकार के कई मंत्री उससे सहमत नहीं थे। उसे संशोधित करने के लिए लाए गए मोदी सरकार के अध्यादेश और फिर उसे स्थायी कानून बनाने के लिए तैयार नए विधेयक के प्रति भी उनका विरोध और इसे लेकर आंदोलन करने का उनका इरादा भी जगजाहिर था।
पटकथा लेखक बने एआर रहमान

पटकथा लेखक बने एआर रहमान

दो बार अकादमी पुरस्कार जीत चुके संगीतकार एआर रहमान संगीत से इतर एक अलग क्षेत्र में हाथ आजमाने जा रहे हैं। नई चुनौती स्वीकार करते हुए रहमान अपनी खुद की पटकथा पर काम कर रहे हैं।
न्याय के लिए अदालत में लेखक

न्याय के लिए अदालत में लेखक

तमिल लेखक पेरूमल मुगरुगन ने हिंदुत्ववादी धमकियों का मुक़ाबला करने के लिए अदालत में गुहार लगाई है। कुछ समय पहले उन्होंने कट्टरपंथियों के दबाव में आकर अपनी लेखकीय मौत की घोषणा कर दी थी। इस घटना ने बड़ी संख्या संख्या में देश-विदेश के बुद्धिजीवियों का ध्यान खींचा था।
दिल्ली पुस्तक मेला: पाठक कम लेखक ज्यादा

दिल्ली पुस्तक मेला: पाठक कम लेखक ज्यादा

विश्व पुस्तक मेले में इस बार हिंदी लेखकों की आमद ने पाठकों को भी पछाड़ दिया है। देश के कोने-कोने से पधारे लेखकों को देख कर लगता है कि हिंदी साहित्य की परंपरा बहुत समृद्ध हो रही है। किताबों की संख्या बढ़ रही है क्योंकि एक-एक लेखक साल भर में कम से कम पांच किताबें लिखने का माद्दा रखता है।
सत्ता के ऊपर ज्ञान, व्यक्तियों के ऊपर विवेक

सत्ता के ऊपर ज्ञान, व्यक्तियों के ऊपर विवेक

चुनिंदा नायकों या खलनायकों की भूमिका पर जरूरत से ज्यादा जोर देने के कारण इतिहास का सम्यक विवेचन नहीं हो पाता। जैसे गांधी, नेहरू, पटेल, जिन्ना और माउंटबेटन पर ज्यादा जोर देने से हमें भारत विभाजन के बारे में कई जरूरी प्रश्‍नों के उत्तर नहीं मिलते। मसलन, देसी मुहावरे में आम जनता को अपनी बात समझाने में माहिर और उनमें आजादी के लिए माद्दा जगाने वाले गांधी अपने तमाम सद्प्रयासों के बावजूद नाजुक ऐतिहासिक मौके पर आम हिंदू-मुसलमान को एक-दूसरे के प्रति सांप्रदायिक दरार से बचने की बात समझाने में क्यों विफल रहे, नोआखली जैसी अपनी साक्षात उपस्थिति वाली जगह को छोडक़र? जिन्ना की महत्वकांक्षा और जिद को कितना भी दोष दें, कलकत्ता और अन्य जगहों का आम मुसलमान क्यों उनके उकसावे पर पाकिस्तान हासिल करने के लिए खून-खराबे पर उतारू हो गया?
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