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आपातकाल की बरसी: दु:स्वप्न से ऐन पहले

आपातकाल की बरसी: दु:स्वप्न से ऐन पहले

वर्ष 1975 की 25 जून को इंदिरा गांधी सरकार ने आंतरिक आपातकाल की घोषणा की और भारतीय राजनीति के इस काले अध्याय से जुड़ी घटनाओं को तब अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्‍सप्रेस की एमसीडी बीट कवर करने वाली पत्रकार कूमी कपूर ने किताब की शक्‍ल दी है। यहां हम इस पुस्तक के कुछ अंशों को पाठकों के सामने ला रहे हैं जिनमें आपातकाल से ठीक पहले की घटनाओं का जिक्र है।
सिनेमा का इतिहास और वर्तमान

सिनेमा का इतिहास और वर्तमान

हिंदी में सिनेमा के इतिहास पर सबसे नई पुस्तक है - समय, सिनेमा और इतिहास। हिंदी सिनेमा के सौ साल पूरे होने पर जश्न तो कई हुए, अखबारों, पत्रिकाओं में कई अहम विशेषांक भी निकले लेकिन पुस्तक के रूप में बॉलीवुड के इतिहास को नए तरीके से समेटने का काम कम हुआ। कुछ देर से ही सही, लेकिन संजीव श्रीवास्तव की यह पुस्तक इस मायने में काफी सराहनीय है। पुस्तक में शामिल सौ साल से अधिक के हिंदी सिनेमा की बड़ी तस्वीरें, व्यक्ति और समाज की अनुभूति और अभिव्यक्ति की बहुरंगी भाव-भंगिमाओं को विविघता से संजोए हुए हैं। यहां व्यावसायिकता की चकाचौंध है, तो कला की प्रांजलता भी। बाजार के दबाव और समझौते की कहानियां हैं तो प्रतिबद सामाजिक सरोकार के नजीर भी हैं।
समीक्षा - एबीसीडी-2

समीक्षा - एबीसीडी-2

यदि आप नृत्य, माफ कीजिए डांस वह भी हिपहॉप डांस के शौकीन हैं तो ही यह फिल्म आपके लिए है। थ्रीडी होने के बावजूद यह फिल्म कुछ खास प्रभाव नहीं छोड़ती है। लेकिन हां बच्चों को यह फिल्म पसंद आ सकती है और शायद उन्हें भी जो टेलीविजन पर आने वाले एेसे शो का हिस्सा होना चाहते हैं।
फिल्‍म समीक्षा: अधूरी नहीं, एक कहानी पूरी सी

फिल्‍म समीक्षा: अधूरी नहीं, एक कहानी पूरी सी

यह तो तय है कि फिल्मकार पुरानी जड़ों की ओर लौट रहे हैं। 60-70 के दशक की ‘परंपराएं’ और ‘संस्कार’ उन्हें लुभा रहे हैं। हमारी अधूरी कहानी इस बात के प्रमाण देती है। एक प्रेम कहानी को फिल्माने के हजारों तरीके होते हैं। फिर भी यह तरीके तयशुदा ही है। दो नायक एक नायिका वाला यह त्रिकोण भी ऐसा ही है।
समीक्षा - दिल नहीं धड़का

समीक्षा - दिल नहीं धड़का

यदि दिल ऐसे ही धड़कता है तो फिर भगवान ही बचाए। जोया अख्तर (निर्देशक) यदि इस फिल्म का नाम दिमाग बंद रहने दो रखतीं तो एकदम बढ़िया रहता। जोया को समझना चाहिए कि कलाकारों का जमघट भर लगा देने से कोई फिल्म हिट नहीं हो जाती।
रेपो दर और घटा सकता है रिजर्व बैंक

रेपो दर और घटा सकता है रिजर्व बैंक

मुद्रास्फीति और वित्तीय घाटा नियंत्रण में रहने के मद्देनजर बैंकरों और उद्योगपतियों को उम्मीद है कि रिजर्व बैंक मंगलवार को होने वाली मौद्रिक नीति समीक्षा में आर्थिक गतिविधियों में तेजी लाने और निवेश बढ़ाने के लिए रेपो दर में कटौती कर सकता है।
‘सफल होने की होड़ और बाजारवाद चिंता का विषय’

‘सफल होने की होड़ और बाजारवाद चिंता का विषय’

लोगों में आज सफल होने की होड़ तेजी से बढ़ने पर चिंता व्यक्त करते हुए जानी मानी लेखिका अलका सरावगी ने कहा कि आज बाजार सबके लिए मूल्यबोध के पैमाने बनने के साथ साधन एवं साध्य बन गया है और ऐसे में लेखकों की जिम्मेदारी काफी बढ़ जाती है।
समीक्षा - बॉम्बे वेल्वेट

समीक्षा - बॉम्बे वेल्वेट

अनुराग कश्यप अपनी फिल्में अंधेरा बुनते हैं। ऐसा अंधेरा जिससे सभी का साबका पड़ता है। लेकिन सभी दौड़ते हुए इसलिए आगे निकल जाते हैं कि शायद आगे रोशनी की किरणें हों। अनुराग फिल्मों के सिरे इतनी आसानी से पकड़ में नहीं आते कि दर्शक उन्हें पकड़ कर फिल्मों की परद में घुसता चला जाए।
समीक्षा - पीकू

समीक्षा - पीकू

शुजीत सरकार की नई फिल्म पीकू वैसे तो पारिवारिक कहानी है, पर आजकल पूरी तरह पारिवारिक कहानियों का दौर और परिभाषा दोनों बदल गई है। शायद अभी भी कुछ दर्शक यह न पचा पाएं कि एक पिता किसी तीसरे व्यक्ति के सामने बेटी के लिए कहे, ‘शी इज नॉट वर्जिन।’ फिर भी यह ऐसी फिल्म है जो पारिवारिक मुद्दों और बूढ़ों की समस्याओं पर हल्के-फुल्के ढंग से रोशनी डालती है। अच्छा लगता है जब नकारा श्रेणी में आ गई नई पीढ़ी की लड़की पिता की खातिर शादी नहीं कर रही और कहती है, ‘एक वक्त के बाद माता-पिता को बच्चे ही जिंदा रखते हैं।’
समीक्षा - उपन्यास डार्क हॉर्स

समीक्षा - उपन्यास डार्क हॉर्स

‘डार्क हार्स’ लेखक नीलोत्पल मृणाल का पहला उपन्यास तो है ही, साथ ही इसके प्रकाशक ‘शब्दारंभ प्रकाशन’ की भी पहली किताब है। जिस तरह से इस उपन्यास के लोकार्पण के महज सप्ताह भर के भीतर ही पहले संस्करण की सारी प्रतियां पाठकों के पास पहुंच गईं और दूसरे संस्करण के लिए प्रीबुकिंग जारी है, इस ऐतबार से उम्मीद है कि यह उपन्यास हिंदी साहित्य में बेस्ट सेलर’ हो सकता है। हालांकि, प्रूफ की गलतियों को लेकर प्रकाशक को सोचना होगा, जो खाने में कंकर की तरह कहीं-कहीं चुभती हैं, लेकिन वहीं यह भी सत्य है कि किसी प्रकाशक के लिए प्रूफ की गलतियों को सुधारना एक अनवरत यज्ञ की तरह होता है, जो हमेशा जारी ही रहता है।