चलते हुए उन्होंने कुर्सी को बड़े नेह से देखा जैसे कह रहे हों, '40 साल तक तूने मुझे बहुत संभाला। अब मैं मुक्त करता हूं तुझे अपनी कामनाओं से।’ एक घंटे बाद जब वह दोबारा कॉलेज पहुंचे तो इस बार कॉलेज गुलजार था।
मैं चाहता था कि सब कुछ ऐसा ही रहा आए। वह जानती थी कि कुछ भी ऐसा नहीं रहेगा। वह गीले कैनवास पर अधसूखे रंगों को धीरे से छूती, …कहती, ‘कितने अच्छे हैं, …पर धुंधला जाएंगे।’ मैं आंखें बंद कर कहता, ‘मैं और बना दूंगा, इनसे भी अच्छे, और चटक, और गहरे।’
वह आज तक न समझ पाया था कि उसके माता-पिता ने उसका नाम शकुनि क्यों रखा था। माता-पिता का तो वह हमेशा लाड़ला रहा था। बचपन से पांसे फेंक कर जीतने का वह शौकीन था। पर केवल इसी कारण तो उसका नाम शकुनि नहीं रखा गया होगा। चलो, मैं क्यों फिक्र करूं, वह मन ही मन बुदबुदाया। वैसे भी नाम में क्या रखा है? फिर पांसे फेंकर कर जीतना भी कला है। इस में एकाग्रता, कल्पना शक्ति, आत्मविश्वास और अपनी काबिलियत में भरोसे की भी अत्यंत आवश्यकता होती है, तभी तो आप जीत सकते हैं।
देश के राजनीतिक इतिहास में ऐसी घटनायें कम ही सुनने को मिलती हैं कि एक गीत किसी सरकार के लिए मुसीबत खड़ी कर दे और सरकार को उस गीत और गीतकार के खिलाफ पूरी ताकत झोंकनी पड़ी हो। और आख़िरकार वह गीत ही सरकार का विदाई गीत बन गया हो।
उनकी मुंदी आंखों के नीचे अंधेरे की गाढ़ी परत बिछी हुई थी। सरकारी अस्पताल के उस आईसीयू में गुजरे जमाने के मशहूर गवैए उस्ताद इकराम मुहम्मद खान को उनकी जिंदगी आखरी सलामी देने की तैयारी कर रही थी।