भूमिजा पच्चीस बरस पहले जब इस शहर में रहने आई थी, शहर छोटा था। सड़कों पर भीड़ और नालियों में पॉलीथिन नहीं थी। शहर से लगे जिस जनविहीन इलाके में सस्ते दर पर दो कमरे किराये पर लेकर वह रहती थी, वह पिछड़े से दिखते किसी गांव के खेत थे और शहर जिन्हें निगलने की प्रक्रिया में था। कुछ साल बाद अच्छे इलाके में उसका अपना मकान बन गया। पुराने इलाके से उसका प्रयोजन खत्म हो गया। पुराने मकान मालिक ने बेटी के विवाह का निमंत्रण पत्र देते हुए आत्मीयता से कहा था, ‘हमारे मोहल्ले को आप लोग भूल गए। संगीत और शादी में सपरिवार आना है।’ दो दिन बाद भूमिजा उस इलाके में हो गए बदलाव को देख कर ऐसे दंग थी मानो उस रास्ते से पहली बार गुजर रही हो। शहर विकास पर उतारू हो जाए तो जाने-पहचाने चिह्नों को बेदर्दी से मिटा देता है। मुख्य सड़क के दोनों ओर लगे पेड़, पुलिया, छोटी-छोटी दुकानें जो इस रास्ते की पहचान थीं, गुम हो गई थीं या नए चमकते नामों और निर्माण के साथ जगमगा रही थीं। बिजली की चमचमाती सजावट के कारण भूमिजा मकान पहचान पाई। भूमिजा, मकान मालिक की बहू के साथ छत पर जाने के लिए सीढ़िय़ां चढ़ ही रही थी कि चप्पल की पट्टी टूट गई। असमंजस में पड़ी भूमिजा ने मकान मालिक की बहू से कहा, ‘पास में जो हनुमान मंदिर है न, वहां एक मोची बैठता है। मै चप्पल सुधरवा कर अभी आई। अंधेरा हो जाएगा तो वह चला जाएगा।’ बहू ने अनभिज्ञता जाहिर की, ‘मंदिर के पास कोई मोची नहीं बैठता।’ ‘बैठता है।’ भूमिजा ने प्रतिवाद किया। ‘मैं तो कार में बैठ कर सीधे निकल जाती हूं। मैंने कभी ध्यान ही नहीं दिया। वैसे भी अब जूते-चप्पल ठीक कराने कौन मोची के पास जाता है। फेंको और नई खरीदो।’ बहू ने अपना तर्क दिया। ‘वे जाते हैं जिनकी तुरंत दूसरी खरीदने की हैसियत या आदत नहीं होती। मैं जब तक सामान का पूरा उपयोग न कर लूं, नहीं फेंकती। यह चप्पल नई है। पता नहीं कैसे टूट गई।’ भूमिजा ने अपना पक्ष रखा। भूमिजा, मोची की तलाश में चली। पहले वह उस मोची के पास इतना आती थी कि उससे परिचय हो गया था।
हनुमान मंदिर के पास पहुंचकर वह अवाक रह गई। यह इलाका कितना बदल गया। तब यहां एक चबूतरा था, बीच में हनुमान जी की छोटी मूर्ति। अब चबूतरे में कमरा और छोटा दालान बनने से मंदिर का स्वरूप बन गया है। मंदिर के पीछे बरगद था। वह वट सावित्री पर पूजन करने आती थी। किसने काट डाला? बरगद से थोड़ी दूर बड़ा गड्ढा था। उसमें भैंसे पानी में डूबी रहती थीं। किसने भरवा दिया? उधर समोसे, जलेबी, चाय की दुकान थी। वह भोजनालय बन गई है। कांच की अलमारी में पेड़े, बेसन लड्डू, इलायची दाना, नारियल, अगरबत्ती रखी है। सब्जी और किराने की चार-छह जो छोटी दुकानें थीं, बड़ी हो गई हैं। बस मोची नहीं दिख रहा। नगर सौंदर्यीकरण के नाम पर उसे बेदखल कर दिया गया या वह मर-खप गया? उसे याद है, मंदिर के पास एक बांस के टुकड़े में काला छाता बांध कर उसने मोची का काम शुरू किया था। वहां मोची को न पाकर भूमिजा लौटने वाली थी कि मंदिर का पुजारी आता दिखा। खाए-अघाए पुजारियों से भिन्न इस कृशकाय पुजारी से भूमिजा ने पूछा, ‘यहां एक मोची बैठता था न?’ पुजारी ने आंखों पर चढ़े सस्ते पुराने नजर के चश्मे से भूमिजा को देखा और बोला, ‘नहीं।’
‘तब यह मंदिर नहीं बना था। हनुमान जी की मूर्ति खुले में रखी थी।’ भूमिजा भी जैसे हार मानने को तैयार नहीं थी। भूमिजा ने उसे कई और बातें याद दिलाईं। कुछ देर वह असमंजस में खड़ा रहा फिर बोला, ‘किसी से कहेंगी तो नहीं, ‘मैं ही मोची हूं।’ भूमिजा चौंकी, ‘तुम?’ ‘पहले मंदिर में आ जाइए।’ पुजारी ने अनुरोध किया। भूमिजा उसके साथ मंदिर के भीतर चली आई। हनुमान जी की मूर्ति यथावत बीच में थी। दीवारों पर तीन ओर बने छोटे आले में शंकर जी, गणेश जी, दुर्गा देवी की मूर्ति रखी है। ‘तुम पुजारी कैसे बन गए?’ ‘जूते-चप्पल सुधार कर पेट नहीं चल रहा था। गांव चला गया कि खेतों में मजदूरी कर लूंगा। एक बच्चा था घरवाली उसे लेकर पता नहीं कहां चली गई। मां-बाप मर गए। गांव में मन नहीं लगा तो वापस आ गया। इस मंदिर में कोई पुजारी नहीं था। मैं यहीं पड़ा रहता। फर्श धो देता। हनुमान जी को सिंदूर चढ़ा देता। बाल बढ़ गए, दाढ़ी बढ़ गई। सामने से गुजरने वाले रुपया-दो रुपया चढ़ा देते। पुजारी वाले कपड़े पहन कर मैं पुजारी बन गया।’ ‘किसी ने पूछा नहीं अचानक यहां कैसे रहने लगे?’ ‘बहिन जी, पंडे-पुजारी का लोग सम्मान करते हैं, उनसे सवाल नहीं करते।’
ठीक कहता है। गेरुआ बाने का प्रभाव होता है। गेरुआ वस्त्रों ने उसमें आत्मविश्वास भर दिया था। वह अच्छी भाषा बोलने लगा है। ‘कभी किसी ने पहचाना नहीं?’ ‘कौन पहचानेगा? मैं न बताता तो आप ही न पहचानतीं। यहां पर जो मोची बैठता था उसका क्या हुआ, जानने की फुर्सत किसे है?’ ‘मंदिर इतना अच्छा कैसे बन गया?’ ‘इन कपड़ों में ताकत होती है बहिन जी। हनुमान जी को छाया चाहिए कह कर मैं आसपास की दुकानों में चंदा मांगता था। धर्म के नाम पर लोग कुछ न कुछ दे देते हैं। पहले खंबे और छत बनी। दीवारें बाद में बनीं। एक भक्त ने पंखा दिया है। भोजनालय वाले ने बिजली का कनेक्शन। कुछ भक्त अनाज, कपड़ा दे जाते हैं। गुजर हो रही है।’ ‘पहले हनुमान जी थे। अब शंकर जी, गणेश जी, माता जी भी हैं।’ ‘मंगलवार और सनीचर को चार-छह भक्त हनुमान जी के दरसन करने आ जाते थे। इतने में गुजर नहीं होती थी। मैंने ये मूर्तियां रख लीं। कोई भोलेनाथ का भक्त है, कोई गनेस का, कोई माता का। रोज कुछ न कुछ मिल जाता है। गनेस उत्सव, शिवरात, नौदुर्गा, हनुमान जयंती पर अच्छा चढ़ावा मिल जाता है। सिंगार का सामान मैं आने वाली बहनों को दे देता हूं। खुस हो जाती हैं कि उन पर माता की दया है। बड़े मंदिरों में चढ़ाई गई चुनरी, नारियल, सिंगार का सामान पंडित वापस दुकानदारों को बेच देते हैं। भक्त वही खरीद कर फिर मंदिर में चढ़ाते हैं। मैं ऐसा नहीं करता। मुझे थोड़ा-बहुत जो मिल जाता है बहुत है।’ ‘कभी किसी ने आपत्ति की तो? डर नहीं लगता?’ ‘पुलिस से मदद लूंगा। एक थानेदार साहब इन हनुमान जी को बहुत मानते हैं। उनके बच्चे को कोई बीमारी थी। वह कहते हैं हनुमान जी के आसीरवाद से ठीक हो गया। बहिन जी, मुझ पर भी हनुमान जी की किरपा है। मैं डरता था किसी दिन मुझे भी भगा देंगे पर इन कपड़ों की बड़ी महिमा है।’ वह आगे कुछ बताता कि एक भक्त आ गया। ग्यारह रुपिया और एक पाव पेड़ा चढ़ाया। भोग लगा कर पुजारी ने दो पेड़े थाली में रखे, बाकी भक्त को लौटा दिए। एक पेड़ा भूमिजा को देते हुए बोला, ‘लीजिए, बहिन जी।’ मोची के हाथ से पेड़ा लेने में भूमिजा झिझक रही थी। सभ्यता-संस्कृति बदल जाती है पर रूढ़ियां नहीं बदलतीं। या उस रफ्तार से नहीं बदलतीं जिस रफ्तार से बदल जाना चाहिए। वह मोची को अस्पश्र्य मानती थी। पहले वह दूर से टूटी चप्पल रख देती। वह बना कर सरका देता। दूर से उसकी हथेली पर पैसे डाल देती। वह सलाम करता। अब पेड़ा कैसे ले? उसे दुविधा में देख मोची ने फिर कहा, ‘लीजिए।’
वह उसे भरोसे से देख रहा है जैसे प्रसाद लेकर वह उसके पंडित होने को प्रमाणित करेगी। छोटे बल्ब के काम चलाऊ प्रकाश में खड़ा मोची मासूम लग रहा था। सांवला रंग अधिक स्याह हो गया था। बहुत छोटे जूड़े में बंधे सफेद केश। छाती तक बढ़ी सफेद मटमैली दाढ़ी। ललाट पर पोता गया पीला चंदन। बीच में बनाया लाल त्रिपुंड। जीवन-यापन के लिए कुछ भ्रम, भुलावे कितने जरूरी होते हैं। भूमिजा ने पेड़ा ले लिया और खाने लगी। भूमिजा को यहां आने का प्रयोजन याद आया। ‘चप्पल बनवाना है। आसपास कोई मोची बैठता हो तो बताओ।’ ‘यहां तो दूर तक मोची नहीं मिलेगा। पहले हम जैसे मोची, बसोर, कुम्हार, दोना-पत्तल वाले कहीं भी बैठ कर धंधा कर लेते थे। अब शहर को सुंदर बनाया जा रहा है। पुलिस के सिपाही भगा देते हैं। प्लास्टिक ने बसोर, कुम्हार, दोना-पत्तल वालों का धंधा मंदा कर दिया है और मोची... अब टूटी चप्पल कम ही लोग बनवाते हैं बहिन जी।’ भूमिजा मंदिर में दक्षिणा चढ़ाते हुए बोली, ‘ठीक कहते हो। विकास छोटे लोगों की बलि लेकर आगे बढ़ता है। अच्छा, मैंने कभी नहीं पूछा लेकिन तुम्हारा नाम क्या है।’ ‘लोग पहले मोची कहते थे। अब पुजारी कहते हैं। मैं सचमुच अपना नाम भूल गया हूं।’ ‘चलती हूं।’ ‘कभी इधर आएं तो दर्शन करने जरूर आएं।’ भूमिजा ने देखा इस बार उसके हाथ सलाम की नहीं, आशीर्वाद की मुद्रा में थे।
जीवन-यापन
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