यूरोपीय संघ (ईयू) के मुद्दे पर 23 जून को होने वाले जनमत संग्रह की समयसीमा निकट आने के साथ ही प्रधानमंत्री डेविड कैमरुन की सत्तारूढ़ कंजरवेटिव पार्टी के नेतृत्व को अपने ही सांसदों से खुली चुनौती मिल रही है। बागी सांसदों ने ईयू में ब्रिटेन की सदस्यता के मुद्दे से निपटने को लेकर उनके खिलाफ खुलेआम बोलना शुरू कर दिया है।
भारतीय नेता हों या अभिनेता, व्यापारी हों या खिलाड़ी, समय के साथ नए-नए रूप दिखाते हैं। रंगमंच पर ही नहीं, जीवन में भी मुखौटा लगाकर पाप-पुण्य करना चाहते हैं। तभी तो पनामा में काले धन के खातों का पर्दाफाश होने के बावजूद किसी ने यह नहीं माना कि उससे कोई गलती हुई है। पर्दे के शहंशाह अमिताभ बच्चन ने जानकर अनजान बनते हुए इतना माना कि किसी ने उनके नाम का दुरुपयोग किया होगा। दूसरी तरफ पनामा पेपर्स आने के बाद आइसलैंड के प्रधानमंत्री ने नैतिक अपराध स्वीकार कर पद से इस्तीफा दे दिया।
सलमान रश्दी सहित 200 से अधिक जानेमाने लेखकों ने ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन से कहा है कि वह भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ होने वाली अपनी बातचीत के दौरान भारत में बढ़ते भय के वातावरण और बढ़ती असहिष्णुता का मुद्दा उठाएं। यह पीईएन इंटरनेशनल की ओर से एक महीने से कम समय में दूसरा एेसा पत्र है।
ब्रिटेन के चुनावों की असली कहानी दो समांतर रुझानों की कहानी है। एक रुझान केंद्रीकरण और स्थिरता की तरफ है। दूसरा रुझान विकेंद्रीकरण की ओर है। कंजरवेटिव पार्टी को बहुमत दिलाने में पहले रुझान का हाथ तो स्पष्ट है लेकिन दूसरे रुझान ने भी उसे उतनी ही ताकत पहुंचाई। स्कॉटलैंड में स्कॉटिश नेशनल पार्टी (एसएनपी) को मिली अपूर्व सफलता, उस तरह की सफलता जैसी दिल्ली में आम आदमी पार्टी को मिली है, दूसरे रुझान की ताकत का संकेत है। यह विश्व के सबसे पुराने राजनीतिक संघ यूनाइटेड किंगडम के ढांचे को पुनर्परिभाषित करेगा। इस दूसरे रूझान ने स्कॉटलैंड में लेबर पार्टी की जड़ खोद दी और वेल्स में भी स्थानीय दल प्लेड सिमरू को मिले वोटों ने लेबर पार्टी के ही वोट काटे। जब विकेंद्रीकरण के हामी स्थानीय दलों ने मुख्य विपक्षी दल लेबर पार्टी का जनाधार और एक हद तक वैचारिक आधार भी चुरा लिया तो सत्तारूढ कंजरवेटिव पार्टी को फायदा मिलना ही था।