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नज़रिया

बदली दुनिया सारी ना बदला हिंदुस्तानी

बदली दुनिया सारी ना बदला हिंदुस्तानी

सन 2002 में कौन कल्पना कर सकता था कि अमेरिका में एक अश्वेत नेता राष्ट्रपति बन सकेगा? भारत में किसने सोचा होगा कि गुजरात के घृणित दंगों की पृष्ठïभूमि के बावजूद प्रदेश के नवोदित नेता नरेंद्र मोदी 2014 में प्रधानमंत्री बन सकते हैं?
भारतीय राजनीति का बदलता चेहरा

भारतीय राजनीति का बदलता चेहरा

भारतीय राजनीति में पिछले दस-बारह वर्षों में भारी परिवर्तन आया है। मनमोहन सिंह ने अपने वित्त मंत्रीत्व काल में जिस नयी आर्थिक नीति की शुरुआत किया था उसका चक्र उनके प्रधानमंत्रित्व काल में लगभग खत्म हो गया। इन वर्षों में राजनीतिक व्यवस्था के आधारभूत दार्शनिक सिद्वांतों में भारी बदलाव आया।
शहर के साथ समस्‍याएं भी बढी

शहर के साथ समस्‍याएं भी बढी

इतिहास में पहली बार वर्तमान दशक ने दुनिया की आबादी का ज्‍यादा बडा हिस्‍सा गांवों की बजाय शहरों में दर्ज किया गया हैा भारत भी उसी दिशा में तेजी से कदम बढा रहा हैा
पलायन पुराण

पलायन पुराण

महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) को लेकर विभिन्न स्तर के कोई चार सौ से ज्यादा अध्ययन हुए हैं और लगभग सबका निष्कर्ष है कि कई तरह की कमियों और गड़बडिय़ों के बावजूद इससे तीन बड़े फायदे हुए हैं,
शिशिर की शर्वरी हिंस्र पशुओं भरी

शिशिर की शर्वरी हिंस्र पशुओं भरी

बढ़ती कन्या भ्रूण हत्या के अलावा आउटलुक के अस्तित्व के इन 12 वर्षों में भारतीय समाज की दूसरी हिंसा कृषि संकट और बढ़ते शहरीकरण के प्रसंग में दिखती है। सन 2001 के पूर्ववर्ती दशक में शहरी आबादी 6.18 करोड़ बढ़ी थी जो 2001 से 2011 के बीच 9.1 करोड़ बढ़ी। ग्रामीण आबाद 2001 के पूर्ववर्ती दशक में 11.3 करोड़ बढ़ी थी लेकिन 2001 से 2011 के बीच यह सिर्फ 9.06 करोड़ बढ़ी। यानी शहरी आबादी वृद्धि दर के मुकाबले ग्रामीण आबादी वृद्धि दर कम हुई। यानी आजीविका के अभाव में या विभिन्न परियोजनाओं के चलते बड़ी संख्या में ग्रामीण आबादी उजडक़र शहरों में आई। यह तर्क दिया जा सकता है कि विकास के कारण ग्रामीण आबादी की गतिशीलता बढ़ी और वह शहरों में बेहतर अवसर तलाशने आई इसलिए इसे आपदा-पलायन नहीं कह सकते। लेकिन इस दौरान शहरों में भी संगठित रोजगार घटा यानी गांवों से शहरों में होने वाला आव्रजन आपदा-पलायन ही था। यही कृषि संकट का भी दौर रहा जब देश में बड़े पैमाने पर किसानों ने आत्महत्या की।
प्रकृति से छीना तो वापस भी करो

प्रकृति से छीना तो वापस भी करो

हिमाचल प्रवास के दौरान कहीं वैसे रसीले आडू भी नहीं दिखे जैसे हमने राज्य में घुसने के ठीक पहले पंचकुला में लिए थे। और लाल-लाल चेरी ने हमें सिर्फ नारकंडा के आसपास राजमार्ग पर लुभाया। पहाड़ी ढलानों पर सेबों के बागान-दर-बागान दिखते चले गए और हम लोगों से पूछते रहे, कहां गए, कहां गए हिमाचल के मशहूर सेब? शायर मिलते तो कह देते, सेबों को किन्नौरी बालाओं के रुखसार की रंगत में देखिए। लेकिन हमें पता चला, हिमाचल में इस बार फलों की पैदावार में जबर्दस्त गिरावट आई है। फलों में वहां मुख्य पैदावार सेब और नाशपाती की होती है और इन दोनों का उत्पादन इस वर्ष 50-60 प्रतिशत कम हुआ है।
शांति के पासे फेंकने की जरूरत

शांति के पासे फेंकने की जरूरत

निर्मला देशपांडे की पाकिस्तान में बरसी से उठी ये सदाएं मनमोहन सिंह पहुंची या यह उनकी अंत: प्रेरणा थी अथवा अमेरिकी उत्प्रेरणा, जैसा कि कुछ लोग विश्‍वास करना चाहते हैं, शर्म अल शेख के संयुक्त वक्तव्य में ब्लूचिस्तान के जिक्र के लिए राजी होकर और भारत-पाक समग्र वार्ता के लिए भारत में आतंकवादी हमले रोकने की पूर्व शर्त को ढीला करके भारतीय प्रधानमंत्री ने शांति के लिए एक जुआ खेला है। मुंबई हमले के बाद दबाव की कूटनीति से भारत को जो हासिल होना था वह हो चुका और पाकिस्तान को लश्कर-ए-तैयबा के आतंकतंत्र के खिलाफ अपेक्षया गंभीर कार्रवाई के लिए बाध्य होना पड़ा। दबाव की कूटनीति की एक सीमा होती है और विनाशकारी परमाणु युद्ध कोई विकल्प नहीं हैं। इसलिए वार्ता की कूटनीति के लिए जमीन तैयार करने की जरूरत थी। ब्लूचिस्तान के जिक्र को भी थोड़ा अलग ढंग से देखना चाहिए।
सत्ता के ऊपर ज्ञान, व्यक्तियों के ऊपर विवेक

सत्ता के ऊपर ज्ञान, व्यक्तियों के ऊपर विवेक

चुनिंदा नायकों या खलनायकों की भूमिका पर जरूरत से ज्यादा जोर देने के कारण इतिहास का सम्यक विवेचन नहीं हो पाता। जैसे गांधी, नेहरू, पटेल, जिन्ना और माउंटबेटन पर ज्यादा जोर देने से हमें भारत विभाजन के बारे में कई जरूरी प्रश्‍नों के उत्तर नहीं मिलते। मसलन, देसी मुहावरे में आम जनता को अपनी बात समझाने में माहिर और उनमें आजादी के लिए माद्दा जगाने वाले गांधी अपने तमाम सद्प्रयासों के बावजूद नाजुक ऐतिहासिक मौके पर आम हिंदू-मुसलमान को एक-दूसरे के प्रति सांप्रदायिक दरार से बचने की बात समझाने में क्यों विफल रहे, नोआखली जैसी अपनी साक्षात उपस्थिति वाली जगह को छोडक़र? जिन्ना की महत्वकांक्षा और जिद को कितना भी दोष दें, कलकत्ता और अन्य जगहों का आम मुसलमान क्यों उनके उकसावे पर पाकिस्तान हासिल करने के लिए खून-खराबे पर उतारू हो गया?
इंसाफ की तलाश और हिंसा का चक्र

इंसाफ की तलाश और हिंसा का चक्र

राजधानी के प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के एक पूर्व प्रोफेसर नागरिकों की एक अनुसंधान टीम के साथ घोर मोआवादी प्रभाव वाले एक जिले में गए जहां उनके एक पूर्व छात्र पुलिस अधीक्षक हैं। पुलिस अधिकारी की अपने पूर्व शिक्षक से मुलाकात का यह गर्वीला क्षण था, उन्होंने अपने गुरु के पांव छुए और उनके साथ अपनी तस्वीर खिंचवाई। नागरिक अनुसंधान टीम ने तब तक प्रशासन, पुलिस और सरकार समर्थित नक्सल विरोधी सशस्त्र निजी सेना का पक्ष ले लिया था इसलिए प्रोफेसर ने माओवादियों का पक्ष लेने के लिए नदी पार जाने की बात कही। इस पर शिष्य पुलिस अधीक्षक तपाक से बोले, सर, आप उस पार गए कि दुश्मन की तरफ होंगे और हमारी गोली खा सकते हैं। मैंने जानबूझकर दोनों लोगों का नाम छिपाया है ताकि एक निजी गुफ्तगू दोनों के लिए सार्वजनिक झेंप की वजह न बन जाए। लेकिन उनकी बातचीत से प्रशासन की ताजा मानसिकता पता चलती है: कि अब नक्सलवादियों के साथ निबटने में बीच की कोई जनतांत्रिक जमीन नहीं बची है। न सिविल हस्तक्षेप की कोई पहल, जैसे जयप्रकाश नारायण ने 1970 के दशक में बिहार के मुसहरी में की थी। अब प्रतिनिधि शासन और माओवादियों के बीच बस मैदान-ए-जंग है।
जवाबदेही के जुए से कतराती नौकरशाही

जवाबदेही के जुए से कतराती नौकरशाही

सूचना के अधिकार कानून के क्रियान्वयन पर अभी चार अध्ययन आए हैं। दो गैर सरकारी, परिवर्तन और सूचना के जनाधिकार पर राष्‍ट्रीय अभियान द्वारा, और दो सरकारी, केंद्रीय सूचना आयोग की कमेटी और स्वयं भारत सरकार के कार्मिक मंत्रालय द्वारा। सभी की रिपोर्ट के अनुसार सूचना का अधिकार सक्षमता से लागू करने में मुख्य बाधा अपर्याप्त क्रियान्वयन, कर्मचारियों के प्रशिक्षण का अभाव और खराब दस्तावेज प्रबंधन है। किसी ने फाइल देखने की नोटिंग की मांगों और खिझाऊ तथा तुच्छ आवेदनों के कारण नहीं माना है। फिर भी कार्मिक मंत्रालय नौकरशाही के दबाव में इनसे संबंधित लाना चाहता है तो उसकी मंशा पर शक होता है वही कार्मिक मंत्रालय जिसका अपना अध्ययन बताता है कि अभी देश के सिर्फ 15 प्रतिशत लोगों को सूचना के अधिकार के कानून की जानकारी है और 85 प्रतिशत लोगों को नहीं। यानी नौकरशाही अभी भी सिर्फ 15 प्रतिशत भारतीयों के प्रति जवाबदेह होने से भी कतरा रही है। और परिवर्तन की रिपोर्ट के अनुसार इन 15 प्रतिशत में सिर्फ एक-चौथाई यानी 27 फीसदी ही संतोषप्रद सूचना हासिल कर पाते हैं।