आर्थिक उदारीकरण के पिछले तीन दशक के दौरान भारतीय राजनीति का चरित्र कुछ ऐसा बदला है कि धन, सार्वजनिक आचरण से लेकर नेताओं का चरित्र तक सब कुछ महज कुर्सी के इर्द-गिर्द सिमट गया है और दलों का फर्क मिट गया है
कथित प्रतिरोध संगठनों के हाथ लगातार लग रही नाकामी संभव है कि पश्चिमी एशिया में एक बार फिर से शिया-सुन्नी टकरावों के चलते गृहयुद्ध जैसी कोई स्थिति पैदा कर दे
मौजूदा संशोधन विधेयक का विरोध जरूरी है, लेकिन वक्फ को बचाने की लड़ाई को इतिहास की रोशनी में समझना जरूरी है ताकि उसकी मौजूदा माली हालत के असली दोषियों की पहचान की जा सके
ऐसे अवसर आते हैं जब कोई शासक खास परिस्थितियों में अपने पसंदीदा व्यक्ति को सत्ता की चाबी सौंप देता है। कुछ उसे नेता की अमानत मानते हैं और कुछ उसका इस्तेमाल सियासत में आगे बढ़ने के लिए कर लेते हैं