संविधान मानवीय विचारों से भरापूरा है। उसमें न्यायोचित अधिकारों का विस्तार किया जा सकता है, मगर उसे बेमानी बनाने, बदल डालने की कोशिशें प्रगतिशील नहीं हो सकतीं
संविधान के दर्शन और मनुष्यता के दार्शनिक संकट से अपनी बात की शुरुआत करना चाहूंगा। उसके बाद भारत के संविधान को लेकर जो चीजें घट रही हैं, मैं उस पर आऊंगा।
संविधान लागू होने का यह 75वां वर्ष है। इस मौके पर संग्रहणीय विशेषांक में संविधान से जुड़े तमाम पहलुओं पर ख्यात विशेषज्ञों के लेख हैं। यह संविधान सभा के सदस्यों के प्रति आदर ज्ञापन भी है जिन्होंने ऐसे कालजयी दस्तावेज का निर्माण किया