आजाद देश में नेहरूवादी आदर्शों और आर्थिक नीतियों से लेकर उदारीकरण और राष्ट्रवाद की नई व्याख्या के दौर में इतिहास के पड़ावों और अहम मोड़ों से उपजी समस्याओं और संवेदनाओं के वृतांत फिल्मकारों के यहां कई
आज कई विद्रूपताएं हमारे सामने हैं। एक ओर ‘राष्ट्रवाद’ का नया दौर है, जो आजादी की लड़ाई के दौरान बने भारत के विचार को खारिज करता दिखता है तो दूसरी ओर हर मामले में यह धारणा मजबूत होती गई है कि इसमें मेरे लिए क्या है। यह धारणा परिवार, समाज, सत्ता और कारोबार सभी जगह हावी हो गई।
आदर्शवाद और विचारधारा चचेरे भाई जैसे हैं। सामान्य दौर में वे एक-दूसरे की अतियों पर अंकुश रखते हैं लेकिन फिलहाल भारत में यह सामान्य समय नहीं है, इस दौर में आदर्शों को झुठलाने के लिए राजनीति विचारधारा का इस्तेमाल करने लगी है
राष्ट्री य आंदोलन के दौरान गांधी और नेहरू की भविष्यआ की परिकल्पहना अलहदा थी पर आम आदमी के कल्याण के प्रति गहरी दृष्टि से प्रेरित थी, मगर आज हम कॉरपोरेट ताकतों और संकीर्ण राष्ट्रपवाद के सामने अपने समर्पण के बीच हर आदर्श से पूरी तरह खाली नजर आते हैं
समाज में गरीब आदमी परेशान होता है तो किसी न किसी दिन वह यही कहेगा कि बहुत हुआ, अब और नहीं! गरीबों की जिंदगी बेहतर करने के लिए हमने उतना नहीं किया जितना हम कर सकते हैं। हम इस तरह धन समेटने में लगे हैं जैसे कि कल तो आएगा ही नहीं
राष्ट्र-भक्ति दक्षिणपंथ तो पार्टी-भक्ति वामपंथियों की गर्भ-नाल की तरह है, इन दो ध्रुवों के बीच करोड़ों भारतीय पिसते हैं, समकालीन समाज में व्याप्त विचारधारात्मक नकारवाद हमें क्रूरता को महिमामंडित करने की ओर ढकेलता है
सच कहने का साहस और सच के लिए संघर्ष करने का सत्साहस खोते जा रहे हैं हम। जितने-जितने लोग, उतने-उतने सच! आस्थाै और तर्क के बीच घिसटता मेरा अपना देश आज कहां पहुंच गया है
विश्वविद्यालयों में माहौल दमघोंटू हो गया है और उच्च शिक्षा के संस्थान ऐसे स्थान नहीं रह गए जहां विचारों के सौ फूल खिल सकें और विश्वविद्यालय ऐसे उद्यान नहीं रहे जहां नाना प्रकार की सुगंध आती हो
एक वक्त ऐसा भी था जब व्यावसायिकता को खेलों के लिए खतरा माना जाता था लेकिन आज जीतना और पैसे कमाना ही अंतिम लक्ष्य बनने लगा तो खेलभावना घाव सहलाती नजर आने लगी