पालमपुर में 1989 की भाजपा कार्यसमिति में राम मंदिर का ऐतिहासिक प्रस्ताव पास हुआ था, उस वक्त सूबे में वीरभद्र सिंह की कांग्रेसी सरकार थी, लेकिन उन्होंने पूर्ण सहयोग किया, यानी राम मंदिर निर्माण में हिमाचल का योगदान है अहम
लोकसभा चुनाव से ठीक पहले नीतीश कुमार का एक बार फिर लालू प्रसाद की राजद को छोड़ जाना और वापस एनडीए में आना उनकी राजनीतिक सूझ-बूझ का परिचायक माना जाए या कुर्सी के लिए वैचारिक अवसरवाद का ऐतिहासिक प्रदर्शन?
राम मंदिर के प्राण-प्रतिष्ठा की अनुगूंज उत्तर को पार करके दक्षिण के राज्यों तक पहुंच चुकी है, कर्नाटक से लेकर केरल तक प्रचारक और स्वयंसेवक अक्षत लेकर पहुंचे
राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी एकता का कोई साझा मंच तैयार होता है तो प्रादेशिक पार्टियों के नेताओं को उसका सिरमौर कांग्रेस को ही मानना होगा। जिन्हें यह स्वीकार नहीं होगा उनकी राहें जुदा हो जाएंगी, जैसा संभवतः नीतीश के मामले में हुआ। बेहतर है कांग्रेस अपने संगठन को हिंदी पट्टी में मजबूत करे